स्वस्थ पर्यावरण विकसित होते बचपन की प्रथम आवश्यकता---संगीता पुरी
>> शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011
संगीता पुरी
पोस्ट-ग्रेज्युएट डिग्री ली है अर्थशास्त्र में .. पर सारा जीवन समर्पित कर दिया ज्योतिष को .. अपने बारे में कुछ खास नहीं बताने को अभी तक .. ज्योतिष का गम्भीर अध्ययन-मनन करके उसमे से वैज्ञानिक तथ्यों को निकलने में सफ़लता पाते रहना .. बस सकारात्मक सोंच रखती हूं .. सकारात्मक काम करती हूं .. हर जगह सकारात्मक सोंच देखना चाहती हूं .. आकाश को छूने के सपने हैं मेरे .. और उसे हकीकत में बदलने को प्रयासरत हूं .. सफलता का इंतजार है।
विद्यार्थी जीवन में हमारे पास लेखों के लिए गिनेचुने विषय होते थे , उनमें से एक बडा ही महत्वपूर्ण विषय था ‘विज्ञान:वरदान या अभिशाप’। आपने परिवारवालों के वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मेरे बाल मस्तिष्क पर पूरा प्रभाव था , मैं विज्ञान के वरदान होने के पक्ष में ही ढेर सारे तर्क देती। विज्ञान अभिशाप भी हो सकता है , इसके बारे में जानकारी निबंध की उन पुस्तकों में मिलती , जिसके लेखक अवश्य दूरदृष्टि रखने वाले थे। हमारा ज्ञान तब कितना सीमित था , पर आज सबकुछ स्पष्ट नजर आ रहा है। देखते ही देखते परिदृश्य बदल गया है, औद्योगिक विकास के क्रम में फैक्ट्रियों से निकलने वाले धुंए , केमिकलयुक्त पानी और अपशिष्ट पदार्थों ने पर्यावरण को भारी क्षति पहुंचायी है। इससे सर्वाधिक नुकसान हमारे बच्चों को पहुंचा है , क्यूंकि स्वच्छ एवं स्वस्थ पर्यावरण विकसित होते बचपन की पहली आवश्यकता है।
रासायनिक खाद और कीटनाशकों के सरकार के बेमतलब बढावा देने से जहां मिट्टी के सूक्ष्मजीव और जीवाणु के खात्मे से देशभर के खेतों की मिट्टी बेजान हो गई है, वहीं खाद्य पदार्थों में पोषक तत्वों का अभाव से बचपन के शारीरिक और मानसिक विकास पर बुरा प्रभाव पड रहा है। भारत में हजारों साल से प्रचलित जैविक खेती से मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी नहीं होती और कम पानी में भी इसमें नमी बनी रहती है। रासायनिक खाद के उपयोग पर जोर ने पशुपालन को भी चौपट किया है, जिससे स्थिति और बिगडी है। सरकार गाय या भैंस पालने वाले खेतिहर को सीधे आर्थिक सहायता देकर नकली दुग्ध पदार्थों का कारोबार रोक सकती है , जिसके कारण बच्चों का स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड रहा है।
प्रकृति में जीव जंतु से लेकर पेड पौधे तक सब आपस में जुड़े हुए हैं। पर स्वार्थपूर्ण विकास के एक अंधे रेस के कारण जाने कितने वनस्पतियों के साथ बहुत से जीव विलुप्त होने की कगार पर है । बगीचों से ताजे फल और सब्जियों को तोडकर खाने और भांति भांति के तितलियों, परिंदों के पीछे भागने का सुख आज के बच्चों को नहीं । वनस्पतियों और जीवों की सुरक्षा और उनके बढ़त के उपाय कर उनका बचपन लौटाया जा सकता है। इसके अलावे प्लास्टिक ने भी छोटी-बड़ी नदियों को कचरे से भर दिया है, जिसके कारण आज गंगा जैसी पवित्र नदी भी प्रदूषित है। पीने के पानी की कौन कहे , प्राणवायु के लिए कितने बच्चे इनहेलर के सहारे जीने को बाध्य हैं , बाकी इलाज के अभाव में मौत को गले लगा रहे हैं।
राष्ट्रीय आय की गणना में आज वर्ष भर में वस्तुओं और सेवाओं के शुद्ध उत्पादन को शामिल किया जाता है, परंतु इस प्रक्रिया में जो वायुमण्डल प्रदूषित होता है , वन कटते हैं , भूमि बंजर होती है , नदियों, झीलों के पानी गंदले होते हैं , मछलियां नष्ट होती हैं , उनकी गणना नहीं की जाती। वास्तव में राष्ट्रीय आय नहीं , `हरित राष्ट्रीय आय' की गणना की जानी चाहिए। आज बचपन में ही मोटापा, कमजोरी, आंखों में चश्मा लग चुका होता है, चालीस की उम्र से पहले लोग शुगर , हाई ब्लडप्रेशर , हाइपर टेंशन के शिकार हो जाते हैं, प्रौढावस्था में ही ओपन हार्ट सर्जरी की मजबूरी से जूझते है । बीमारियों के इलाज का खर्च भी राष्ट्रीय आय में घटाने से हमें सही विकास दर प्राप्त होगा
वास्तव में पर्यावरण को लेकर कभी भी सरकार गंभीर नहीं रही! विकास के लिए जब भी पेड काटे जाएं, सरकार द्वारा कंपनियों को उतने ही पेड लगाने की जिम्मेदारी भी दी जाए। इसके अलावे अधिकाधिक उपयोग होने से कोयले , तेल और गैस के भंडार लगातार समाप्त हो रहे हैं , उनपर भी रोक लगनी चाहिए। जल संरक्षण, पौधरोपण, ध्वनि व वायु प्रदूषण कम कर ही सरकार देश को या आने वाली पीढी को सुरक्षित रख सकते हैं। एक फलदार पेड़ अपने पूरे जीवन में पंद्रह लाख से अधिक का लाभ दे जाता है। पर विदेशी नीतियों के अंधानुकरण और अपने प्राकृतिक संसाधनों के प्रति व्यक्ति और सरकार , दोनो की उपेक्षापूर्ण रवैये ने इस युग में बच्चों को कंप्यूटर और कार भले ही आसानी से दे दिया हों , शुद्ध जल, पौष्टिक खाना और मनोनुकूल वातावरण नहीं दे पा रहे।
रामराज्य का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी ने पर्यावरण को बनाए रखने में राजा और प्रजा के संयुक्त उत्तरदायित्व पर जोर दिया था। इस्तेमाल न होने पर बिजली से चलनेवाली चीजें बंद रखकर , पानी गर्म करने के लिए सोलर हीटर का उपयोग जैसे व्यक्तिगत उपायों से पर्यावरण को बचाने में मदद मिलेगी। पटाखों से पर्यावरण को और क्षति न पहुंचाएं। गाडी की जगह साइकिल चलाकर खुद के स्वास्थ्य को ठीक रखने के साथ साथ एक आदर्श भी स्थापित किया जा सकता है। हम कहीं भी जाएं, यादगारी के लिए कुछ पेड या पौधे ही लगा दें। किसी अतिथि का सम्मान करते हुए पुष्पमालाओं की जगह गमले में लगा पौधा भेंट करें। उत्तराखंड की कन्याओं ने दूल्हों के जूते चुरा कर उनसे नेग लेने की जगह उनसे पौधे लगवाने की एक सार्थक पहल की है। आने वाले युग में स्वस्थ पर्यावरण के लिए बच्चों को इसके प्रति जिम्मेदार बनाएं। बूंद-बूंद से ही तो सागर बनता है, एक करे तो उससे प्रेरित होकर दूसरा भी करेगा।
इतने दिनों बाद अब विश्व को पर्यावरण-रक्षा की चिंता हुई है , हमारे ऋषि मुनियों ने हजारो वर्ष पहले इस बारे में सोंच लिया था। हमारी महान संस्कृति ने लोगों को हमेशा से पेड़ों की रक्षा करना, नदियों को मां मानना , पीपल, बरगद, तुलसी जैसे पौधों और जलाशयों की पूजा करना, जीव जंतुओं की रक्षा करना सिखलाया। ग्रहों के बुरे प्रभाव को दूर करने के लिए भी विभिन्न पेड पौधों के तनों , छालों , फूल पत्तों के उपयोग की सलाह हमारे ज्योतिष के ग्रंथों में है। स्वामी विवेकानंदजी भी पर्यावरण की रक्षा के लिए भारतीय अध्यात्म और दर्शन को उपयोगी मानते थे, आज की पीढी इसे जितनी जल्द लें उतना ही अच्छा है। प्रकृति संतुलन करना अच्छी तरह जानती है, आनेवाली पीढी के बचपन को बचाने के लिए, उनको स्वच्छ और संतुलित पर्यावरण देने के लिए आज के कपूतों को मिटाने के लिए उसे कडा कदम उठाना होगा।
रासायनिक खाद और कीटनाशकों के सरकार के बेमतलब बढावा देने से जहां मिट्टी के सूक्ष्मजीव और जीवाणु के खात्मे से देशभर के खेतों की मिट्टी बेजान हो गई है, वहीं खाद्य पदार्थों में पोषक तत्वों का अभाव से बचपन के शारीरिक और मानसिक विकास पर बुरा प्रभाव पड रहा है। भारत में हजारों साल से प्रचलित जैविक खेती से मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी नहीं होती और कम पानी में भी इसमें नमी बनी रहती है। रासायनिक खाद के उपयोग पर जोर ने पशुपालन को भी चौपट किया है, जिससे स्थिति और बिगडी है। सरकार गाय या भैंस पालने वाले खेतिहर को सीधे आर्थिक सहायता देकर नकली दुग्ध पदार्थों का कारोबार रोक सकती है , जिसके कारण बच्चों का स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड रहा है।
प्रकृति में जीव जंतु से लेकर पेड पौधे तक सब आपस में जुड़े हुए हैं। पर स्वार्थपूर्ण विकास के एक अंधे रेस के कारण जाने कितने वनस्पतियों के साथ बहुत से जीव विलुप्त होने की कगार पर है । बगीचों से ताजे फल और सब्जियों को तोडकर खाने और भांति भांति के तितलियों, परिंदों के पीछे भागने का सुख आज के बच्चों को नहीं । वनस्पतियों और जीवों की सुरक्षा और उनके बढ़त के उपाय कर उनका बचपन लौटाया जा सकता है। इसके अलावे प्लास्टिक ने भी छोटी-बड़ी नदियों को कचरे से भर दिया है, जिसके कारण आज गंगा जैसी पवित्र नदी भी प्रदूषित है। पीने के पानी की कौन कहे , प्राणवायु के लिए कितने बच्चे इनहेलर के सहारे जीने को बाध्य हैं , बाकी इलाज के अभाव में मौत को गले लगा रहे हैं।
राष्ट्रीय आय की गणना में आज वर्ष भर में वस्तुओं और सेवाओं के शुद्ध उत्पादन को शामिल किया जाता है, परंतु इस प्रक्रिया में जो वायुमण्डल प्रदूषित होता है , वन कटते हैं , भूमि बंजर होती है , नदियों, झीलों के पानी गंदले होते हैं , मछलियां नष्ट होती हैं , उनकी गणना नहीं की जाती। वास्तव में राष्ट्रीय आय नहीं , `हरित राष्ट्रीय आय' की गणना की जानी चाहिए। आज बचपन में ही मोटापा, कमजोरी, आंखों में चश्मा लग चुका होता है, चालीस की उम्र से पहले लोग शुगर , हाई ब्लडप्रेशर , हाइपर टेंशन के शिकार हो जाते हैं, प्रौढावस्था में ही ओपन हार्ट सर्जरी की मजबूरी से जूझते है । बीमारियों के इलाज का खर्च भी राष्ट्रीय आय में घटाने से हमें सही विकास दर प्राप्त होगा
वास्तव में पर्यावरण को लेकर कभी भी सरकार गंभीर नहीं रही! विकास के लिए जब भी पेड काटे जाएं, सरकार द्वारा कंपनियों को उतने ही पेड लगाने की जिम्मेदारी भी दी जाए। इसके अलावे अधिकाधिक उपयोग होने से कोयले , तेल और गैस के भंडार लगातार समाप्त हो रहे हैं , उनपर भी रोक लगनी चाहिए। जल संरक्षण, पौधरोपण, ध्वनि व वायु प्रदूषण कम कर ही सरकार देश को या आने वाली पीढी को सुरक्षित रख सकते हैं। एक फलदार पेड़ अपने पूरे जीवन में पंद्रह लाख से अधिक का लाभ दे जाता है। पर विदेशी नीतियों के अंधानुकरण और अपने प्राकृतिक संसाधनों के प्रति व्यक्ति और सरकार , दोनो की उपेक्षापूर्ण रवैये ने इस युग में बच्चों को कंप्यूटर और कार भले ही आसानी से दे दिया हों , शुद्ध जल, पौष्टिक खाना और मनोनुकूल वातावरण नहीं दे पा रहे।
रामराज्य का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी ने पर्यावरण को बनाए रखने में राजा और प्रजा के संयुक्त उत्तरदायित्व पर जोर दिया था। इस्तेमाल न होने पर बिजली से चलनेवाली चीजें बंद रखकर , पानी गर्म करने के लिए सोलर हीटर का उपयोग जैसे व्यक्तिगत उपायों से पर्यावरण को बचाने में मदद मिलेगी। पटाखों से पर्यावरण को और क्षति न पहुंचाएं। गाडी की जगह साइकिल चलाकर खुद के स्वास्थ्य को ठीक रखने के साथ साथ एक आदर्श भी स्थापित किया जा सकता है। हम कहीं भी जाएं, यादगारी के लिए कुछ पेड या पौधे ही लगा दें। किसी अतिथि का सम्मान करते हुए पुष्पमालाओं की जगह गमले में लगा पौधा भेंट करें। उत्तराखंड की कन्याओं ने दूल्हों के जूते चुरा कर उनसे नेग लेने की जगह उनसे पौधे लगवाने की एक सार्थक पहल की है। आने वाले युग में स्वस्थ पर्यावरण के लिए बच्चों को इसके प्रति जिम्मेदार बनाएं। बूंद-बूंद से ही तो सागर बनता है, एक करे तो उससे प्रेरित होकर दूसरा भी करेगा।
इतने दिनों बाद अब विश्व को पर्यावरण-रक्षा की चिंता हुई है , हमारे ऋषि मुनियों ने हजारो वर्ष पहले इस बारे में सोंच लिया था। हमारी महान संस्कृति ने लोगों को हमेशा से पेड़ों की रक्षा करना, नदियों को मां मानना , पीपल, बरगद, तुलसी जैसे पौधों और जलाशयों की पूजा करना, जीव जंतुओं की रक्षा करना सिखलाया। ग्रहों के बुरे प्रभाव को दूर करने के लिए भी विभिन्न पेड पौधों के तनों , छालों , फूल पत्तों के उपयोग की सलाह हमारे ज्योतिष के ग्रंथों में है। स्वामी विवेकानंदजी भी पर्यावरण की रक्षा के लिए भारतीय अध्यात्म और दर्शन को उपयोगी मानते थे, आज की पीढी इसे जितनी जल्द लें उतना ही अच्छा है। प्रकृति संतुलन करना अच्छी तरह जानती है, आनेवाली पीढी के बचपन को बचाने के लिए, उनको स्वच्छ और संतुलित पर्यावरण देने के लिए आज के कपूतों को मिटाने के लिए उसे कडा कदम उठाना होगा।
4 टिप्पणियाँ:
सटीक विचार!……आभार!
बहुत अच्छी पोस्ट है मगर सभी इसे नही समझ पा रहे है जिस सब इस बात को महसुस करेगे अपनी धरती को हरा भरा व सुरक्षित कर पायेगे अन्यथा नही ।
bahut hi aacha
so nice
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