पर्यावरण बचाना है--सबको पेड़ लगाना है!!---धरती हरी भरी रहे हमारी--अब तो समझो जिम्मेदारी!! जल ही जीवन-वायू प्राण--इनके बिना है जग निष्प्राण!!### शार्ट एड्रेस "www.paryavaran.tk" से इस साईट पर आ सकते हैं

बचपन और पर्यावरण-- मोनिका जैन

>> रविवार, 24 अप्रैल 2011

My Name is monika jain.i compleated M.B.A. & pesetaly i am working
 at air raipur as a compear . my father'name is Mr.Pradeep kumar jain.
He is a doctor. Basially i am from simga dist.-raipur.
                                   My dream to make my india greean &
 clean.this lekh is only starting to send my thoughs to persons . Who
understand the actual meaning of environment.we thankfull to you bcoz
giving me this opportunity.


बचपन और पर्यावरण

प्रस्तावना’:- हंसता, मुस्कुराता, खिलखिलाता बचपन देखकर मन आनंदित हो उठा पर पर्यावरण की स्थिति देख । इस बचपन के भविष्य हेतु मन चिंतित हो उठा !पूरा विष्व आज पर्यावरण प्रदूषण ग्लोबल, वर्मिग जैसी बड़ी - बड़ी समस्याओं से जूझ रहा है ।

ये समस्यायें जहॉ दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है वहीं सुरसा की तरह मुंह फाड़े हमारे पर्यावरण और विकास को निगलती जा रही है । हम मनुष्य है ईष्वर तो नही जो इस विराट मुख से आसानी से निकल आयें और हमें नुकसान भी ना हो ।आज पृथ्वी प्रदूषित होती नजर आती है जिस तरफ देखो वायु, मृदा ,जल, सभी में
विषैले पन का अनुभव होता है ।

हमने अपने विकास और सुविधाओं को इस प्रकार विकसित किया कि हमारे पर्यावरणका हर कोना प्रदूषित हो चुका है । हम जानते है किन्तु हमेषा अंजान बनकर बार -बार वही करते है जो नहीं करना चाहिए । इस जाने अंजाने कार्यो से हमारी प्रकृति और पर्यावरण को केवल नुकसान ही होता आया है ।

कार्य किया विकास के लिए पर हमने अपनी सुख सुविधायों के लिए अपने पर्यावरण को क्षति पहुंचायी हमने अपना आज तो गुजार लिया किंतु आने वाले कलपर प्रष्न चिन्ह अंकित कर दिया । इस प्रष्न का उत्तर भी हमारे पास ही है । किन्तु उस उत्तर के लिए अभी से ही प्रयास करना होगा ।

बच्चों को अभी से ही पर्यावरण का महत्व समझाना होगा । पेड़ पौधे लगाओ से कहे बिना उन्हें पेड़ लगाकर बताना होगा ।
पर्यावरण को नुकसान क्यों और कैसे ?

कहने के लिए बहुत ही तुच्छ सा प्रष्न है किन्तु इस छोटे से सवाल पर बड़े बड़े बवाल
है ।

ये तो अब आम बात हो गयी है । छोटे से छोटे बच्चे तक अब बता देते है कि
पर्यावरण को नुकसान क्यों हो रहा है ? और कैसे हो रहा है और पर्यावरण
प्रदूषण के कारण हम कैसे प्रभावित हो रहे है एक छोटे से बच्चे में इतनी समझ
पर क्या फायदा उस समझ का प्रयोग प्रायोगिक तौर पर कहॉ हो पाता है । इसलिए
पहले प्रयोग फिर पढ़ाई में हो उपयोग वाली विधि का चयन करें ।

हमारे द्वारा रखी गयी असावधानियॉ ही कारण है पर्यावरण के नुकसान का ।

‘‘ चिड़िया चुग गई खेत अब पछतावा क्यों ?’’

ये पक्तियॉ भले ही किसी सज्जन ने हंसी में कह दिया होगा पर पर्यावरण की बात पर
सटीक है । सबसे पहले कुछ घटनाओं पर विचार करिये ।

(1) मुंबई के समुद्री किनारे पर तेल का भारी मात्रा में बहना ।

(2) जयपुर में पेट्रोल पंपों में लगी आग ।

(3) रेडियेषन के कारण रद्दी के दुकानों पर हुआ नुकसान

(4) भोपाल गैस कांड आदि ।

(5) भोपाल गैस कांड आदि ।

(6) प्रदूषण के कारण केवल फैक्ट्री या कारखानें ही नही है । हमारी
असावधानियॉ है ।

भले ही ये घटनायें अचानक घटित हुई । पर हुई तो हमारे ही कारण हमें पता
है कि पालीथिनों के प्रयोग पर रोक है फिर भी धड़ल्ले से हर कोई करता इनका
प्रयोग है ।

प्रयोग के बाद गंदगी फैलती है सो अलग । ये तो कुछ ही गलतीयों का भयावाह रूप
है । अगर गिनने बैठ जायें तो पृथ्वी के निर्माण के बाद हमारे किवास के प्रारंभ
से अब तक की दुर्घनाओं पर तो पूरी लाइब्रेरी ही बन जायेगी ।

(3) पहले और अब:- पहले भले ही हम कम विकसित ये किन्तु ये तो समझते कि यदि
पेड़ काटा है तो पौधा लगाना ही है ।

और अब पौधा लगायें ना लगायें पेड़ की कटाई जरूरी है ।

(4) एक छोट सी कहानी:- हम छोटे ये तब एक गांव गये वहॉ जाकर वो फल और
सब्जियों का आनंद उठाया जो अब केवल कल की बातें हो चुकी है ।

फिर घुमते - घुमते पता चला कि पहले जो भी सजा देनी होती तो पंच सरपंच
लोगों को पेड़ लगानें और उस पेड़ पौधों की देखभाल करने की सजा देते
थें । छोटी सजा कम पौधे लगाने की और बड़ी सजा ज्यादा पौधे लगाने की
होती थी ।

जानकर अच्छा लगा तब ये जब भी गलती होती एक छोटा सा पौधा लगानें की पहल की
पर बड़े होते - होते ये बातें पीछे छूट गयी । जो गलत हुआ पर कहीं कहीं
हमारी दी हुई षिक्षा काम आ गई ।

आज जब हमारे यहॉ बच्चे गलती करते है । या फिर जन्म दिवस आदि पर एक छोटा सा
पौधा लगवाकर हम खुष होते है । फिर ये विचार आता है कि केवल एक के प्रयास
से क्या होगा ।

हमारे यहॉ ही नही पूरे विष्व को इस कार्य को युद्व स्तर पर अपनाना होगा ।

(5) बचपन से करें षुरूवात:- छोटे - छोटे हाथों में बड़ी जिम्मेदारी न
थमाते हुए । उन्हें प्रयोग करके बताये पहले हर घर में बड़े - बड़े बाग बगीचे
हुआ करते थें और अब सारा गार्डन घर के अंदर रखे गमलों में आ गया है ।

(क) इसलिए प्रयत्न ये करें कि हर स्कूल हर घर में छोटे - छोटे बगीचे हो जहॉ
बच्चे पौधे लगायें और उनकी देखभाल बच्चों को सिखायें और खेत -
खलिहानों जंगलों या पौधों से संबंधित एक अलग विषय स्कूलों में पढ़ाये
जायें ।

(ख) स्कूलों में या घरों में जिस तरह से इंजिनियर, डॉक्टर, एम.बी.ए.,
कम्प्यूटर के क्षेत्र में पढ़ाई कराई जाती है । उसी प्रकार पौधो के अलावा खेती
- किसानी जैसे विषयों को भी षुरू से ही रखा जाये ।

(ग) पर उपदेष कुषल बहुतेरे इस प्रथा को हटाकर स्वयं से षुरूवात करते हुए ही
षिक्षा दें । अन्यथा बच्चों को सही मार्गदर्षन नहीं दिया जा सकता । इसलिए पहले
खुद की आदतें जो पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती हों उन्हें बदलने का प्रयत्न
करें ।

(घ) पर्यावरण और प्रकृति की सुरक्षा की षुरूवात तो कभी भी की जा सकती है पर
ज्यादा देर करने पर नुकसान और बढ़ सकता है । इसलिए समय रहते कुछ ऐसे नियम
बनाये और अनुषासन पूर्वक उन नियमों का पालन किया जायें ।

(ज) जन्म दिन, त्यौहारों पर बच्चों से एक पौधा जरूर लगवायें ।

वैसे बचपन के लिए तो बहुत षुरूवात है किन्तु पर्यावरण की सुरक्षा में बड़ों को
भी बड़चढ़ कर उत्साह दिखाना चाहिए ।

फल, फूल, सब्जीयों के अलावा पौधो और पेड़ो के महत्व को समझना और बच्चों
को समझाना होगा ताकि बचपन खुषबु, स्वाद व सेहत से जुड़ा रहे ।

निष्कर्ष:- आंचल के तुझे मै ले के चलू कुद याद आया । किषोर कुमार की सुरीली
आवाज और गीत के बोल जिसे हमें भविष्य में यथार्थ में बदलना होगा । ताकि
भविष्य में किसी का बचपन पर्यावरण की दी हुई सौगातो से अछूता ना रहे ।

विकास और प्रकृति एक साथ कदमों से कदम मिलाकर चले । प्रकृति - पर्यावरण इन
षब्दों के महत्व को समझना और समझाना होगा । ताकि भविष्य अंधकारमय होने
से बचा रहे ।

आज धीरे - धीरे स्थिति इतना विकराल रूप धारण कर चुकी है कि हम थोड़े से
असावधान हुऐ नही और बड़ी - बड़ी घटनायें घटित हो जाती है ।

(1) पर्यावरण ही प्रदूषित:- (क) सच पहले और अब में कितना अंतर है आज हर
मनुष्य पर्यावरण से जुड़ी हुई अपनी जिम्मेदारियों से विमुख है उसे फिक्र है
तो केवल अपनी सुविधाओं की ।

(ख) सुविधाओं का दायरा भी इतना बड़ा कि हर पल कोई ना कोई नया अविष्कार
हो रहा है फिर अविष्कार चाहे महामषीन का हो या फिर छोटी मषीन का सारे
प्रयोग होते तो प्थ्वी के लिए पर्यावरण को नुकसान ही पहुंचाते है ।

(ग) आज हर मौसम में एक नयी बीमारी और उस बीमारी के चक्रव्यूह में फंसते मनुष्य
कभी इसका कारण प्रकृति का कहर तो कभी मनुष्य के अनदेखे प्रयोग नुकसान तो
पर्यावरण का ही हुआ ना ।

(घ) विकास उचित, प्रयोग उचित किन्तु इनका दुरूपयोग अनुचित जिसके प्रति जागरूक ना
होकर हम पर्यावरण को लगाातार नुकसान पहुंचा रहे है ।

(2) पर्यावरण बचाव के उपाय:-

पौधे लगाओ, जनसंख्या वुद्वि रोको, ये सब बातें तो बहुत हुई । अब प्रायोगिक
तौर पर इन बातों को अपनाना होगा । और इसक षुरूवात होगी बचपन से ।

(3) बचपन से षुरूवात:-(क) स्कूलों, कालेजों में पर्यावरण और पर्यावरण से
संबंधित विषयों को पढ़ाने के अलावा प्रयोगिक तौर पर बताने का प्रयत्न किया
जाये ।

(ख) पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर कुछ ऐसे नियम बनायें जायें जिससे पर्यावरण
को सुरक्षित रखा जा सके और अनुषासन पूर्वक नियमों का पालन किया जायें ।

(ग) बच्चों को जन्म दिन, त्यौहार आदि पर एक पौधा जरूर लगवायें ।

(घ) गलती करने पर ही पौधा लगाकर उसकी देखभाल करने की सजा दें । जिसमें
बड़े भी उनकी मदद करें ।

(ज) कृषि, बनों से संबंधित कुछ ऐसे विषेष विषय हों जो भविष्य में
अपनाकर बच्चे अपना कैरियर बना सके तकनीक ही नहीं प्रकृति के रूपों को भी पहनाने


ये तो कुछ उपाय है जिसके द्वारा बचपन में ही पर्यावरण के महत्व और उसके फायदें
जानें जा सकते है ।

किंतु पर्यावरण की सुरक्षा पर और गहराई से विचार कर उपायों का प्रयोग कर
पर्यावरण को बचाया जा सकता है । फिर चाहे बात सावधानी की हो, अपने विकास की
या फिर पर्यावरण सुरक्षा की ।

अभी नही तो फिर षायद कभी नही । अभी से पस्थितियों को सुधारने की पहल न
की जाये तो बाद में बचपन पर्यावरण से दूर हो जायेगा ।

ये बाते षायद हम कहीं न कहीं से समझनें लगे है । और षुरूवात हो चुकी है ।
समय रहते ही समझ लेना बेहतर होगा । ताकि आज और आने वाले कल का बचपन
पर्यावरण की देन से महरूम ना रह जाये ।

हमारे बचपन में मिली हुई सौगातें हम उन्हें भी दे पायें और जैसा मैने लिखा
उन्हें एक ऐसा गगन एक ऐसी छांव मिले जहॉ प्रदूषण जैसे गम उन्हें छू भी ना
सकें ।

तो आइये हम सब मिलकर पर्यावरण और बचपन को संवारने का मिलकर पर्यावरण और
बचपन को संवारने का मिलकर आगाज करें ।

नये दिन नई षुरूवात, नये सूरज नयी रौषन की स्वागत करें । जिसमें प्रदूषण
रहित पर्यावरण हो और हर बचपन षुद्व स्वाद, हवा, पानी, का हकदार है जो उसे
मिलना ही चाहिए ।

क्योंकि पर्यावरण से हम और हम से पर्यावरण आपस में इस प्रकार जुड़े है किसी
को भी नुकसान होना मतलब दूसरे को उससे बड़ा नुकसान ।

उसी प्रकार बचपन भी पर्यावरण से जुड़ा हुआ है । और इसे बचाने की चहल भी
बचपन से ही होना चाहिए ।

 मोनिका जैन
प्रदीप कुमार जैन
जैन मेडिकल स्टोर सिमगा

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बचपन और हमारा पर्यावरण --- आलोकिता

>> शनिवार, 23 अप्रैल 2011

परिचय-
आलोकिता 
पिता का नाम - श्री अवधेश प्रसाद गुप्ता 
माता का नाम - डॉ.अंजू कुमारी प्रसाद 
जन्म तिथि -२ दिसम्बर १९९१
निवास - पटना (बिहार )
 
बचपन और हमारा पर्यावरण 

बचपन.....शब्द में ही सुखद अहसास हैं एक स्वछंदता  और निखरेपन  का, इस संसार मैं आँखे खोलते ही सबसे पहले आंखे दो चार होती हैं मनुष्य की अपने  सृजक से और देखता हैं वह अपने आसपास के अनजाने वातावरण को  और साजों लेता चाहता हैं इस प्रकृति को अपने  आगोश मैं .
प्रायः हर व्यक्ति कि सबसे सुनहरी यादें उसकी बचपन से हीं जुड़ी होतीं हैं | दादा दादी ,नाना नानी के किस्से, मम्मी पापा की कहानियां लगभग सभी में बचपन और उसकी मस्तियों का ही बखान होता है |यादें तो हमारे पास भी हैं बचपन की पर एक बहुत बड़ा फर्क है , उनकी और हमारी यादों में | उनकी यादों में एक संतुष्टि है , एक तृप्ति है और हमारी यादों में एक अधूरापन है |ये अधूरापन है पर्यावरण का, प्रकृति की सुन्दरता का | उनकी यादों में खेतों की बातें हैं, पेड़ों की बातें हैं और हमारी यादों में मोटर गाड़ियों का शोर, उनसे निकलने वाले धुंए हैं | उनका बचपन एक आजाद बचपन था, खेतों में घुमने की आज़ादी , नदियों में तैरने की आज़ादी, पेड़ों पर चढ़ने की आज़ादी | हमारा बचपन था एक कैद बचपन, तेज़ रफ़्तार से चलने वाली गाड़ियों के डर से घर में कैद बचपन | किसी किसी छत पर सजावटी फूलों के गमलें तो हमने देखे हैं पर वो बरगद, पीपल के बड़े बड़े पेड़ तो हमारे लिए कहानियों तक ही सिमित हैं |जन्मस्थली मेरी सोन किनारे और अब तक का जीवन गुजरा है गंगा किनारे | दोनों हीं बड़ी नदियाँ हैं पर हमने देखा क्या है ? सोन में सिर्फ रेत और गंगा में कूड़े कचड़े | पापा कहते हैं पहले दोनों में बहुत पानी था |वे लोग छोटे थे तो लेख लिखते थे वृक्ष पर, तैराकी पर और हमने जब 
से लिखना सीखा है हम लिखते हैं प्रदुषण पर, वृक्ष कि कटाई पर |
कहने को तो सिर्फ पेड़ों की कटाई हुई है पर इन पेड़ों कि कटाई ने हमारे बचपन से कितने ही अहम् हिस्से काट दिए हैं | प्यारी प्यारी रंग बिरंगी तितलियों , चिड़ियों को तो हमने देखा है पर सिर्फ किताबों में | असल जिन्दगी में देखी है तो नन्ही गौरैया,काला कौवा, चिकेन सेंटर पर कटते हुए मुर्गे और पिंजड़े में बंद कुछ तोते | पेड़ हैं हीं नहीं तो विविध तरह के पक्षी रहेंगे कहाँ ?हम मनुष्य विकास के नाम पर प्रकृति से कटकर तो रह सकते हैं पर पशु पक्षी नहीं | और वास्तव में हम विकाश कि तरफ बढ़ रहे हैं या विनाश कि तरफ तय कर पाना मुश्किल है |किसी भी स्तर पर  यदि  चौमुखी विकाश हो तो हीं उसे विकास कहा जा सकता है, सिर्फ सकल घरेलु उत्पाद(GDP) के बढ़ते दर को विकास नहीं माना जा सकता |प्रकृति को नुकसान पंहुचा कर हम जितनी रफ़्तार से तरक्की कर रहे है क्या दुगनी रफ़्तार से  विनाश हमारी तरफ नहीं बढ़ रहा ? बुजुर्गों ने जिन पक्षियों, जिन किट-पतंगों को देखा है, जिन हालातों को उन्होंने जिया है, हमने उनको सिर्फ रटा है किताबों से | पर अब लोगों में धीरे धीरे आती जागरूकता देख कर एक आशा जगी है कि शायद स्थिति सुधर जाए | लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करने क लिए har वर्ष ५ जून को पर्यावरण दिवस मनाया जाता है | गैर सरकारी स्तर पर भी बहुत से अभियान चले हैं जो कि हम सभी जानते हैं १९७३ में मंडल, रामपुर, फाटा के बाद १९७४ में रेणी में भी बड़े स्तर पर चिपको आन्दोलन चला था |प्राकृतिक se सांठ गाँठ बनाये रखने के लिए कुछ आदिवासी समूहों में हर बच्चे के जन्म पर कुछ वृक्ष लगाये जाते थे | उसी तर्ज़ 'प्रत्येक व्यक्ति एक वृक्ष' का नारा आया पर अब एक वृक्ष से नहीं प्रत्यक व्यक्ति को अनेको वृक्ष लगाने होंगे और जंगलों कि कटाई भी रोकनी होगी |शोध बताते हैं कि वर्तमान स्थिति में एक हफ्ते में हमारी धरती से ५ लाख हेक्टर  में फैला जंगल साफ़ कर दिया जा रहा है | बच्चों में होने वाली बिमारियों में औसतन ५% 
बीमारियाँ दूषित पर्यावरण कि वजह से होतीं हैं, और पर्यावरण के वर्तमान स्थिति से अनुमान लगाया 
गया है कि यह प्रतिशत और अधिक बढ़ने कि आशंका है | यह आशंका सच्चाई में तब्दील न हो जाए इसके लिए हमे प्रयाश्रत  होना होगा | पर्यावरण को दूषित होने से बचाना होगा, उसे स्वक्ष रखना होगा 
स्वक्ष  रहेगा पर्यावरण, 
तो सुरक्षित होगा बचपन | 
सुना है हर बरसात के बाद पहले इन्द्रधनुष दिखाई देता था पर हमारे बचपन में सतरंगी इन्द्रधनुष कहाँ ?है तो बस किताबों में दादी नानी की कहानियों में, असल जिन्दगी में बस ऊँची ऊँची दीवारों पर 
चढ़े कृत्रिम रंग हीं हैं |टैगोर जी के जीवन कि एक घटना पढ़ी थी कि उन्हें सबकुछ धुंधला सा दीखता था पर जब उन्हें चश्मे मिले तो उनका कहना था कि अचानक उन्हें साफ़ दिखने लगा | तब उन्हें पता चला कि प्रकृति कितनी सुन्दर है और उस सुन्दरता पर वे मुग्ध हो गए | प्रदूषित जल वायु में रहते रहते आज तो ज्यादातर बच्चों को चश्मा लग चुका है पर फिर भी उनके नसीब में वे मनमोहक दृश्य 
कहाँ ?
बड़ों से सुना है उनके बचपन में वे कपडे के थैले का इस्तेमाल करते थे | हमने जब से होश संभाला है पौलिथिन का हीं इस्तेमाल किया है , और सिर्फ इस्तेमाल नहीं किया बल्कि तभी से ये सुनते आ रहे हैं कि यह पर्यावरण के लिए बहुत नुकसानदेह है | इसका इस्तेमाल बंद होना चाहिए और जाने कब तक ऐसा सुनते रहेंगे |मुझे लगता है ' प्लास्टिक का इस्तेमाल बंद करो' यह नारा हीं गलत है | इसका उत्पादन हीं क्यूँ नहीं बंद होता ? अरे भाई न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी | पौलिथिन का 
उत्पादन हीं नहीं होगा तो लोग इस्तेमाल कैसे करेंगे ?
अक्सर पुराणी पीढ़ी के लोग नयी पीढ़ियों पर प्रकृति से दूर होने का, सुविधाओं के नाम  पर  संकीर्णताओं में जकड़े होने का इल्जाम लागतें हैं | पर क्या कभी ये सोचा है, जिसने प्रकृति का मनोरम दृश्य देखा हीं नहीं वह भला प्रकृति प्रेमी कैसे बन सकता है ? जिसने पर्यावरण का सही रूप देखा ही नहीं वह भला पर्यावरण के बारे में कैसे सोच सकता है ?इस पर्यावरण ने हमारे बुजुर्गों के बचपन की यादों में तो चार चाँद लगा कर और सुनहरा बना दिया, इसमें बढ़ते प्रदुषण ने हमारे बचपन में एक अधूरापन ला दिया है |पर अब जब हम सारी स्थितियों से वाकिफ हैं तो तो मिलकर एक सम्मिलित प्रयास तो कर हीं सकते हैं ताकि आने वाली पीढ़ियों के बचपन में वह अधूरापन न आये | वे भी प्रकृति को समझ पाए, उसकी नजदीकियों का लुत्फ़ उठा पाए, हमें ही समग्र  प्रयास  करना होगा और जल्दी ही |

अपने  पुरखो  कि  विरासत  को  संभालो  वरना
अबके बारिश  में  ये  दीवार  भी ढह  जाएगी

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बचपन और पर्यावरण.---हरीश सिंह

>> गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

परिचय--हरीश सिंह
मैं उत्तरप्रदेश के संत रविदास नगर भदोही जनपद का रहने वाला हू. मेरी
शिक्षा  यही पर हुयी. १९८७ से समाचार पत्रों के जनवाणी, पाठकनामा आदि में
लिखने के साथ ही लेखन प्रति आकर्षित हुआ . १९९२ में भदोही से प्रकाशित एक
पाक्षिक अख़बार से जुडा. इसके बाद हिंदी दैनिक आज में लिखने लगा,
तत्पश्चात तीन वर्ष तक दैनिक जागरण में कार्य किया. मन उब गया तो उसे
छोड़कर न्यू कान्तिदूत टाइम्स में बतौर प्रधान संपादक के पद पर  कार्यरत
हुआ जो आज तक हू. इसके साथ ही आज अख़बार में विशेष संवाददाता के रूप में
कार्यरत हू.

जीवन के लिए खतरा बना पर्यावरण प्रदूषण
पर्यावरण प्रदूषण आज हमारे देश ही नहीं वरन पूरे विश्व की समस्या बनी हुई
है, जिसे लेकर आज पूरा विश्व परेशान है किन्तु इस प्रदूषण से निजात पाने
के लिए कोई कारगर उपाय नहीं ढूढे जा रहे है, जिसके कारण यह समस्या
दिनोदिन बढती जा रही है. प्रदूषण का अर्थ है प्राकृतिक संतुलन में दोष
पैदा हो जाना. शुद्ध वायु,शुद्ध जल, शुद्ध खाद्य पदार्थ और शांत वातावरण
का न मिलना ही प्रदूषण है . वायु,जल, और ध्वनि प्रदूषण को लेकर आज पूरा
विश्व परेशानी में पड़ा है.पर्यावरण प्रदूषण जीवन के लिए खतरा बन चुका
है.
    देखा जाय तो वायु प्रदूषण छोटे-छोटे शहरों से लेकर महानगरों तक फैला
है. शुद्ध वायु पाने के लिए लोग ग्रामीण क्षेत्रों व पहाड़ी स्थलों की और
पलायन करते हैं. महानगरों में कल-कारखानों का धुवाँ, मोटर वाहनों का
धुवाँ इस तरह से फैला है की स्वस्थ वायु में साँस लेना भी दूभर हो गया
है. हमारे यहाँ कालीन नगरी में काती रंगाई के लिए लगे डाईंग प्लांट के
कारण छतो पर सूखने के लिए डाले गए कपड़ो पर काले कण जमा हो जाते है. यही
कण आंख में पड़कर आँखों की बीमारी को बढ़ावा दे रहे हैं तो स्वांस के
द्वारा फेफड़ो में पहुँच कर असाध्य रोगों को जन्म दे रहे रहे हैं. ऐसी
समस्या लगभग हर उन शहरों की है जहा सघन आबादी होने के पेड़ो का अभाव है
और वातावरण तंग है.

वायु प्रदूषण के अलावा सबसे विकट समस्या जल प्रदूषण की है. कल-कारखानों
का दूषित जल नदी-नालों में मिलकर भयंकर जल-प्रदूषण पैदा करता है ,  इससे
अनेक बीमारियाँ पैदा होती है. कालीन नगरी में जल प्रदूषण की स्थिति भयावह
रूप धारण कर चुकी है. जनपद की आधी आबादी स्वच्छ जल से कोसो दूर है.सबसे
भयावह स्थिति भदोही नगर की है, जहा केमिकलयुक्त गन्दा पानी सीधे भूगर्भ
जल में प्रवाहित किया जा रहा है. जिसके कारण भूगर्भ जल में खतरनाक केमिकल
की मात्रा बढ़ गयी है. लाखो लीटर भूगर्भ जल का दोहन करने के उपरांत उसे
विषैला कर पुनः भूगर्भ जल में मिला दिया जाता है. जिससे उसमे व्याप्त
कार्बनिक व अकार्बनिक रसायन का तेजी से आक्सीकरण होता है. जैव आक्सीकरण
के कारण जल में उपस्थित घुलित आक्सीज़न की कमी इस हद तक पहुँच सकती है की
उससे जलीय प्राणियों की मौत तक हो सकती है.
 कालीन नगरी में डाईंग प्लांट के जहरीले जल को मिलाये जाने के गंभीर
परिणाम सामने आये हैं, कई मुहल्लों में अपाहिज  बच्चे पैदा हुए या फिर
पैदा होने के बाद अपाहिज हो गए . जनपद के एक भी स्थान पर  सीवर ट्रीटमेंट
प्लांट नहीं है. जबकि नगर के अन्दर इसकी उपलब्धता  काफी मायने रखती है.
चिकित्सको का कहना है की पानी में मिले जहरीले तत्व जैसे मैग्नेशियम  एवं
सल्फेट की उपस्थिति से आंतो में जलन व खराबी आती है. फ्लोराइड से
फ्लोरोसिस एवं नाइट्रेट  से मोग्लोविनेमिया नामक बीमारी हो सकती है.
पूर्व में केन्द्रीय भूगर्भ जल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की टीम नगर के कई
स्थानों से पानी का नमूना लिया था जाँच के उपरांत आंकड़ा चौकाने वाला था
विशेष रूप से आर्सेनिक व क्रोमियम की मात्रा चौंकाने वाली थी , प्रति
लीटर पानी में आर्सेनिक ३.४ मिली. व क्रोमियम २.९ मिली. पाई गयी . पानी
में बढ़ी क्रोमियम,सीसा व कैडमियम से कोम अल्सर, स्नायुमंडल पर
दुस्प्रभाव, रक्ताल्पता, सिर व जोड़ो में दर्द अनिद्रा,गुर्दे, फेफड़े व
दिल की बीमारी व   अपंग बच्चे पैदा हो रहे  है.

 तीसरा नंबर आता है ध्वनि प्रदूषण का. मनुष्य को रहने के लिए शांत
वातावरण चाहिए.  परन्तु आजकल कल-कारखानों का शोर , यातायात का शोर ,
मोटर-गाड़ियों की चिल्ल-पों , लाउड स्पीकरों की कर्णभेदी  ध्वनि ने बहरेपन
और तनाव को जन्म दिया है. शहरो में बढ़ रहे ध्वनि प्रदूषण का परिणाम
साफतौर पर परिलक्षित हो रहा है देखा जाय बातचीत करने के दौरान हम ऊँची
आवाज़ में बात करने की आदत बना चुके है.


वातावरण में व्याप्त हो रहे  प्रदूषणों के कारण मानव के स्वस्थ जीवन को
खतरा पैदा हो गया है ! खुली हवा में लम्बी साँस लेने तक को तरस गया है
आदमी ! गंदे जल के कारण कई बीमारियाँ फसलों में चली जाती हैं जो मनुष्य
के शरीर में पहुँचकर घातक बीमारियाँ पैदा करती हैं .   पर्यावरण-प्रदूषण
के कारण न समय पर वर्षा आती है , न सर्दी-गर्मी का चक्र ठीक चलता है !
सूखा  , बाढ़  , ओला आदि प्राकृतिक प्रकोपों का कारण भी प्रदूषण है,
पर्यावरण में दिनों दिन बढ़ रहे प्रदूषण के कारण प्रकर्ति   ने भी अपना
संतुलन खो दिया है. समय चक्र का संतुलन डावाडोल हो रहा है. प्रदूषण को
बढ़ाने में कल-कारखाने , वैज्ञानिक साधनों का अधिक उपयोग , फ्रिज , कूलर
, वातानुकूलन , ऊर्जा संयंत्र आदि दोषी हैं ! प्राकृतिक संतुलन का
बिगड़ना भी मुख्य कारण है ! वृक्षों को अंधा-धुंध काटने से मौसम का चक्र
बिगड़ा है ! घनी आबादी वाले क्षेत्रों में हरियाली न होने से भी प्रदूषण
बढ़ा है ! विभिन्न प्रकार के प्रदूषण से बचने के लिए चाहिए की अधिक से
अधिक पेड़ लगाए जाएँ , हरियाली की मात्रा  अधिक हो ! सड़कों के किनारे घने
वृक्ष हों ! आबादी वाले क्षेत्र खुले हों , हवादार हों , हरियाली से
ओतप्रोत हों,   कल-कारखानो को आबादी से दूर रखना चाहिए और उनसे निकले
प्रदूषित मल को नष्ट करने के उपाय सोचने चाहिए, पर्यावरण संतुलन को बचाने
के लिए पूरा विश्व चिंतित दिखाई दे रहा है, संगोष्ठी  आयोजित की जा रही
है. विचार विमर्श किये जा रहे है. लाखो-करोनो रुपये पानी की तरह बहाए जा
रहे है है. किन्तु अभी तक इसके सार्थक परिणाम दिखाई नहीं दे रहे है
दूसरी तरफ हमारी सोच संकुचित होती जा रही है. हम सोचते है की सिर्फ एक
आदमी के करने से क्या होगा किन्तु हमारी सबसे बड़ी कमी यही है. यदि
पृथ्वी पर रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति गंभीरता पूर्वक विचार करके इस विकट
समस्या के निस्तारण के बारे में नहीं सोचेगा तो इसका दुष्परिणाम हमें और
आने वाकी पीढ़ी को भुगतना पड़ेगा ..

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बचपन और हमारा पर्यावरण ---- सत्यम शिवम

>> मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

                               बचपन और हमारा पर्यावरण 
सच में बचपन बड़ा ही कोमल और सुकुमार पल होता है,जो हम सब की यादों में हमारे गुजरे सुहाने कल सा ही कही बसा होता है।बचपन की मस्ती,खेल कूद,ना चिंता खुद की और ना दुनिया की परवाह।बस इक लालसा बेबाक होकर इस उम्र को जीने की।
                      हमारा पर्यावरण जो हमारे आसपास की धरोवर है,जो है वृक्ष हमारे,हमारे खेत खलिहान जिसपर हमारे देश की आधारशीला रखी गयी है।पर्यावरण जीवन यापन हेतु इक ऐसा जीवंत पक्ष है,जिसके बिना खुशहाल जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
                          हमारा बचपन बहुत हद तक हमारे पर्यावरण से प्रभावित होता है।इक नन्हे दिल में इक छोटे पौधे को लगाने की चाहत ऐसी लगती है,मानों दोनों की मित्रता कई सदियों पुरानी हो।हम सभी विद्यालयों में अपने पाठ्यक्रम में भी एक ऐसे विषय का अध्ययन करते है,जो हमारे पर्यावरण से सम्बंधित होता है।बच्चों के बाल्य मन में पर्यावरण के प्रति जागृति पैदा करना ही इन विषयों का मुख्य उद्देश्य होता है।बहुत हद तक ये बच्चों को ऐसी जानकारी उपलब्ध कराता है,जो उन्हे अपने पर्यावरण के प्रति सचेत करता है।बच्चे जानने लगते है इन हरी घासों के महत्व को जिन्हे वो हर रोज घर के बगीचों में,विद्यालय के पार्कों में और रास्ते में देखते है।
                                                                इक नन्हा पौधा भी इक नन्हे नवजात शिशु सा होता है।इक पौधे का बचपन बड़ी कष्टों से गुजरता है।आँधियों को सहता है,बरसात में भींगता है,कभी कभी तो किसी जीव जन्तु का सेवन भी हो जाता है।पर उन्ही में जो पौधे बच जाते है,वे बड़े वृक्ष का रुप धारण करते है और हमारे देश का भविष्य उज्ज्वल करते है। 
                                         यह सर्वविदित है,कि बचपन हमारी उम्र का वो परावँ होता है,जिसे कोई जैसा चाहे मोड़ दे।बिल्कुल मिट्टी के साँचे सा जिसे कुम्हार अपने मनमुताबिक आकार प्रदान करता है।बचपन में कभी हम किताबों में खोये रहते है,तो कभी बगीचे में खेलते।पर बस इक साथी हमारा पर्यावरण हर पल हमारे नजरों के सामने होता है।किताबों में विषय बनाकर उसे पढ़ते है और बागों में उसकी हरियाली के संग खेलते है। 
                                                       पर्यावरण हमारे जलवायु का भी निर्धारण करता है।इक स्वस्थ पर्यावरण ही समयानुकूल सही जलवायु का द्योतक होता है।बचपन में हमारे दादा दादी हमें न जाने कितनी दंत कथाएँ सुनाते है,जिन्हे हम बड़ी उत्सुकता से सुनते रहते है।उन कहानियों में कभी कोई पेड़ बोलता है,तो कभी उसकी शाखाएँ हाथ बढ़ाती है।किसी कहानी में चिड़ीयों का घोंसला होता है पेड़ की ओट में और कभी बरसात से भींगती मैना रानी।ये सारी बचपन की कहानियाँ हमारा ध्यान पर्यावरण की ओर ले जाती है। 
                                        इक अनकही के पुकार पर कुछ सुन हमारा बचपन इक अद्भूत आकर्षण में ओत प्रोत हो जाता है।वो आकर्षण होता है हमारा हमारे पर्यावरण के प्रति।हम एक नन्हा पौधा लाते है और अपने घर के गमले में ही उसे उगा देते है।बचपन और हमारा पर्यावरण जीवन के वैसे दो पहलू होते है,जो भूलाये नहीं जा सकते।हमारा बचपन काफी हद तक हमारे पर्यावरण के साथ मित्रवत और व्यवहारिक होता है,जो दोनों के संगत अन्योन्याश्रय सम्बंध को दर्शाता है। 
                                                       सत्यम शिवम

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बचपन की रंगीन दुनिया चहकती--शालिनी कौशिक

>> सोमवार, 18 अप्रैल 2011

शालिनी कौशिक [एडवोकेट]
                         पुत्री श्री कौशल प्रसाद कौशिक एडवोकेट
                                 कांधला [मुज़फ्फरनगर]
जीवन के सबसे सुनहरे पल यदि कोई भी सोचे विचारे तो वे पल होते हैं जो हम बच्चे रहकर गुजारते   हैं अर्थात बचपन से प्यारा इस जग में कुछ नहीं.बचपन का यही आकर्षण कवियों,गीतकारों को भी लुभाता रहा है .बचपन में जो सोम्यता  सरलता है उसे ध्यान में रखते हुए ही हमारी फिल्मे भी बचपन की प्रशंसा करते नहीं थकती हैं:-
"औ औ औ बचपन के दिन भुला  न देना,
"बचपन हर गम से बेगाना होता है."
   प्रकृति और बचपन का साथ सदेव से रहा है और इसी कारण यही देखा जाता है कि लोग बच्चों को कभी फूल और कभी चाँद कहकर संबोधित करते हैं . पंडित जवाहर नेहरु जहाँ कहीं भी जाते थे बच्चों को देखकर आत्मविभोर हो जाते थे  और उन्हें बड़े प्रेम से माला व् गुलदस्ता देते ,पुचकारते और गोदी में उठाते ,यहाँ तक कि पंडित नेहरु ने तो अपने जन्म दिवस को ही ''बाल दिवस '' के रूप में परिवर्तित कर दिया था .वे कहते थे '' देश की असली निधि और वास्तविक समृधि तो देश के बच्चे हैं ,ये वे कली  हैं जो कल विकसित होकर अपने सौरभ से अपने मुल्क को तथा दुसरे मुल्कों को सौरभान्वित कर देंगे '' .
किन्तु आज अगर हम देंखे तो बचपन को जीवन देने वाली प्रकृति की धरोहर  का विलोपन हो रहा है .बचपन कम्प्यूटर रूम या छोटे -छोटे कमरों या छोटी छोटी गलियों में सिमट कर रह गया है .बचपन में हम जिन प्राकृतिक वादियों में घूम फिर कर जिस उल्लास का अनुभव करते थे उसका लेश मात्र भी अब दिखाई नहीं देता है .जनसँख्या दबाव व् औद्योगिकीकरण ने नगरीय सामाजिक पर्यावरण को काफी हद तक प्रदूषण युक्त कर दिया है .परिणामस्वरूप सामाजिक प्रदूषनो - गरीबी ,बेरोज़गारी,आतंकवाद, भ्रष्टाचार,आंतरिक सुरक्षा,स्त्री दमन,राजनीति का अपराधीकरन,जातिवाद,साम्प्रदायीकता ,एवं गड़बड़ चुनाव व्यवस्था का आधुनिक दशानन के रूप में अभ्युदय हुआ है और इस प्रदूषण का असर हम आज के बच्चों पर प्रत्यक्ष देखते हैं .
             बच्चों में आज वे भावनाएं जो पहले युवा वर्ग में आती थी बचपन में ही जन्म लेने लगी हैं.आज बच्चे कबीर की वे गीली मिटटी नहीं रहे जिन्हें कुम्हार किसी भी रूप में ढाल लेता है,अपितु आज बच्चों में वैज्ञानिक  प्रगति का प्रभाव कहें या यही पर्यावरणीय प्रदूषण ,ये सोच बचपन से दिखाई देती है.रोज़ समाचार-पत्र ऐसे समाचारों से भरे हैं जिनमे माँ-बाप की डांट पर बच्चा घर छोड़ गया या उसने आग लगा ली ,या गोली मार ली,  या माँ-बाप को ही मार दिया.
              छोटे-छोटे बच्चों में गर्ल-फ्रेंड ,बॉय-फ्रेंड परंपरा विकसित होती दिखाई पड़ रही है और यह वह प्रदूषण है जो हमारी कंप्यूटर -क्रांति के द्वारा बच्चों में फेला है.बच्चों के लिए कंप्यूटर-शिक्षा अनिवार्य की जा रही है और बच्चों का दिमाग इंटरनेट पर पोर्न वेबसाईट   तलाश रहा है माता-पिता की व्यस्तता बच्चों को और खुला वातावरण दे रही है और बच्चों का भोलापन छूमंतर होता जा रहा है .
           यदि हम इन सब बातों पर गौर करें तो पाएंगे कि इस सामाजिक दशानन का अंत श्रीराम सद्रश महिमान्वित समाज के विशुद्ध सांस्कृतिक पर्यावरणीय बाणों से ही किया जा सकता है  इसके लिए पहले समाज को परिवार को गरिमामय होना होगा .परिवार में एक दुसरे के प्रति बढ़ता वैरभाव  ,साजिशें ,बच्चों को गलत कार्य के लिए बड़ो द्वारा उकसाया जाना इसका प्रमुख  कारण है .ऐसे में भगवान राम के समान गरिमामय  जीवनशेली अपनाते हुए इन प्रदूषण रुपी राक्षसों को अपने गुण रुपी बाणों द्वारा मार गिराकर ही हम बच्चों को स्वच्छ सामाजिक पर्यावरण दे सकते हैं .यह हमारा कर्त्तव्य है कि हम  बच्चों को फूलों से ही जुड़े रहने दें प्लास्टिक के भावनाविहीन खिलोने न बनने दें.शायर किंकर पाल सिंह के शब्दों में-
"बचपन की रंगीन दुनिया चहकती,चलो ढूंढ लायें.
बारिश का पानी व् कागज की कश्ती ,चलो ढूंढ लायें.
------------------------------------------------------
परियों,पतंगों,तितलियों में उलझी कहानी में खोयी,
सपनीली भोली शरारत मचलती चलो ढूंढ लायें.

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बचपन और हमारा पर्यावरण---दर्शन बवेजा

>> रविवार, 17 अप्रैल 2011

परिचय
नाम : दर्शन लाल बवेजा
जन्म तिथी : २२ मई १९७०
निवास : यमुना नगर
प्रांत : हरियाणा 
पेशा : विज्ञान अध्यापक,विज्ञान संचारक,पर्यावरण प्रेमी  
स्कूल का नाम: राजकीय वरिष्ट माध्यमिक विद्यालय अलाहर,यमुना नगर
शैक्षिक योग्यता : बी.एस.सी.,बी ऐड.,ऍम ए (अर्थशास्त्र,राजनीती विज्ञान)
ब्लॉग जगत में लेखन :मार्च २०१० से
ब्लोग्स के नाम : विज्ञान गतीविधीयाँ क्यों और कैसे विज्ञान में ,इमली इको क्लब
रुचियाँ  : कम संसाधन वाले स्कूलों मे कम लागत से विज्ञान संचार ,विज्ञान मोडल्स बनाना और विज्ञान संचार ,कम लागत से तैयार होने वाले विज्ञान शिक्षण सहायक सामग्री विकसित करना |
हिंदी में ही विज्ञानं ब्लॉग लेखन क्यों ? : हिंदी में ही तो विज्ञान संचार की अत्यधिक आवश्यकता है क्यूँकी जब ४-५ सालों के बाद गाव के हर बच्चे हाथ में इंटरनेट होगा तो वो ये नहीं कह सकते की किसी ने हिंदी में विज्ञान में कुछ काम नहीं किया है सभी शिक्षक अपनी जिम्मेदारी को समझें विज्ञान एवँ पर्यावरण के प्रति विद्याथियों को शिक्षित करें। जिससे उनमें पर्यावरण की रक्षा करने की जागरुकता आए। यह कार्य अत्यावश्यक इसलिए है कि विद्यार्थी के कोमल मन मस्तिष्क पर  बचपन में प्राप्त ज्ञान की अमिट छाप रह्ती है और वह इसे जीवन भर नहीं भूलता। इसलिए अंधविश्वाश निवारण एवं पर्यावरण  संरक्षण में शिक्षक की महत्वपूर्ण भूमिका है, इससे इंकार नही किया जा सकता।   


विशेष : वास्तव मे काम किया जाए रिपोर्टिंग झूठी भी हो सकती है और बनायी भी जा सकती है,मुझे छोटे छोटे बच्चों के साथ विज्ञान और पर्यावरण गतिविधियाँ करने मे और उन को विज्ञान और पर्यावरण गतिविधियाँ करनेमे मस्त होते देख कर अपने विज्ञान अध्यापक होने पर बहुत खुशी होती है.



बचपन जीवन का वो भाग जिस के लिए आदमी तब भी  तरसता है जब वो बड़ा होता है जगजीत सिंह की वो गजल 'कागज की कशती' सुन कर बचपन की याद किस को ना आयी होगी| एक बचपन हमारा था अब हमारे अपने बच्चों का है और एक बचपन है 'कचरा बीनने वाले बच्चों का' जी एक सच जिस से नजरे नहीं फेरी जा सकती| सुबह तड़क वेला में कंधे पर कट्टा/बोरी लटकाए मैले गंदे बिना नहाये ये बच्चे दुकाने खुलने से पहले बाज़ारों में कालोनियों में स्कूलों के पास पहुँच जाते है और कागज ,गत्ता ,पोलीथीन ,प्लास्टिक आदि फेंका हुआ कचरा उठाने लगते है उन को कोई सरोकार नहीं है कि उसने बहुत बड़ी कम्पनी के बच्चों के कपड़ो का जो डिब्बा/पोलीथीन  उठाया,अपने बोरे में डाला और फिर अगले शिकार(डिब्बे) की और भागा उस के पास वक्त नहीं है की वो ये जाने ५० पैसे में बिकने वाले इस डिब्बे में उस के ही हमउम्र का ३००० रुपयों का कोट था| उसे इस काम में यानि कचरा बीनने में भी कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है वो भाग भाग कर चीते की फुर्ती से आपने शिकार को पकड़ता है डिब्बा ,कागज ,अखबार ,पोलीथीन ,लोहा ,टीन गलनशील/अगलनशील कचरा और उस के बदले दिन को रोटी .. बचपन उनका और पर्यावरण हमारा    जी हाँ ,मै कचरा बीनने वालों को सच्चा पर्यावरण हितैषी  मानता हूँ वो छोटे छोटे बच्चों के झुण्ड दूर से ही अपने डिब्बे को भूखे बाज़ की तरह पहचान लेते है और दूर से ही बोल देते है वो मेरा,बड़े वे के  प्रतिस्पर्धात्मक तिडकमों से अनजान इन के पेशे में बचपन की निश्छल,पाक,सहयोगात्मक भावना होती है यानी शिकार जिस को पहले दिखा वो ईमानदारी से हुआ उसका .. यहाँ कोई व्यवसायियों के घरानों जैसी जंग नहीं है बस अपना बचपन अप्रत्यश रूप से पर्यावरण को समर्पित करते ये बच्चे दुखी है तो बस गली बाजारों के कुत्तों,पालतू कुत्तों से जो इन से प्रतिस्पर्धा रखते है| कुत्ते सब के जीवन में होते है जो दैहिक,मानसिक और भावनात्मक शोषण करते है|  ठोस कचरा  व्यवसाय के प्रबंधन डीग्री धारक बिना स्कूल गए पर स्कूल के बाहर रोज जाने वाले ये गार्बेज पिकरस् गजब के ठोस कचरा प्रबंधक होते है किसी शहर में इन की संख्या हज़ारों में हो सकती है ये 'सब के लिए अनिवार्य शिक्षा क़ानून' के वो नमूने है जो करोड़ों के घोटालों वाले नेताओं के मुहं पर तमाचा होते है| इन की ठोस कचरा  उठाने कुशलता,छटाई करने का कौशल,कबाडी से हिसाब करने की निपुणता और शाम को घर का चुल्हा जलाने में परिवार की सहायता कबीले तारीफ हती है | इनका बचपन पर्यावरण संरक्षण की भेंट चड जाता है| दोषी कौन?     यहाँ दोष देखने और दिखाने का सवाल नहीं है बस अपने बचपन को  पर्यावरण पर न्योछवर करते ये बच्चे सच्ची पर्यावरण सेवा कर रहे है अप्रत्यक्ष रूप से ही सही,इनको पता भी नहीं,इनको क्या और भी बहुत से लोगों को नहीं पता की ये पर्यावरण संरक्षण के वो गिद्ध है जो अपनी भूख भी मिटाते है और एक दिन खुद भी मिट जाते है | पर्यावरण के इन महान संरक्षकों को जो वास्तविक बचपन जी रहे है को मेरा नम नमन 

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'मैं बचपन की बात करूँ--शिखा कौशिक [शोध छात्रा]

>> शनिवार, 16 अप्रैल 2011


शिखा कौशिक [शोध छात्रा]
       पुत्री श्री कौशल प्रसाद [एडवोकेट]
       कांधला [मुज़फ्फरनगर]
बचपन और हमारा  पर्यावरण
            ''मैं बचपन की बात करूँ ,
     या बचपन मुझको याद करे ;
       आओ आज बैठकर हम तुम
       छोटी-छोटी बात करें ''   [आभा श्रीवास्तव]
बाजारवाद ,उपभोक्तावाद और भौतिकतावाद प्रधान आज के युग में एक और जहाँ लैपटौप, मोबाईल आदि टेक्नोलोजी  का उपयोग करते बच्चे उम्र से पहले ही व्यस्क होने लगे है वही आज के बड़ों को यह चिंता सता रही है कि हम कही अपनी अगली पीढ़ी  को प्रदूषित पर्यावरण के हवाले कर उनके जीवन के साथ खिलवाड़ तो नहीं कर रहे है ? वैश्वीकरण को बढावा देने वाली हमारी पीढ़ी  ने अपने पूर्वजों से प्राप्त पर्यावरण की कितनी दुर्गति की है यह किसी से छिपा नहीं है .प्रकृति के साथ किये  गए  हमारे खिलवाड़ को शब्दों में प्रकट  करते हुए मो अरशद खान सच ही लिखते है --
       ''दूर-दूर तक हरा-भरा जो
     फैला था मैदान,
     लाला जी ने बनवा ली है ,वहां कई दूकान,
 बन कर ठूठ खड़ा है पीपल ,जो देता था छाव,
सूना सूना  सा लगता है ,अब नानी का गाँव .''
अब जब गाँव की ही ये दशा है तो महानगरों का हाल कैसा होगा इसका तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है .हम अपनी बात छोड़ भी दे तब भी ये तो हमे सोचना ही होगा की आखिर आज के बच्चे कैसे जीवन धारण कर पायेगे ऐसे प्रदूषित पर्यावरण में ? प्रदूषित हवा , प्रदूषित जल और प्रतिपल बढता भयंकर शोर ...इन सबसे त्रस्त बच्चे शायद चंदा मामा से पूछ रहे हैं --
        क्या ऊपर भी धुंआ धुआं है ,
      चलती है बस कार जी ,
  लाउडस्पीकर शाम सवेरे
    बजते है बेकार जी ''  [किशोर कुमार कौशल ]
हमने बच्चों के लिए छोड़ा ही क्या है ? वैश्वीकरण की अंधी दौड़ में धरती ,नदिया ,हरियाली ,स्वच्छ हवा ,पर्वत , सागर ,पशु-पक्षी आदि सभी को दूषित कर डाला है ------
           ''धरती मैली ,नदिया मैली
        मैला -मैला आसमान
              हरियाली और स्वच्छ हवा को
         निगल गया इंसान,
               पर्वत, पेड़ ,हवाएं सागर
          पशु-पक्षी का हाहाकार
                कितना दूषित ,कितना कलुषित;
           मानव का संसार '' [भगवती प्रसाद दवेदी  ]
प्रदूषण के कारण  आज के बच्चे कितनी भयानक बीमारियों से ग्रस्त हो रहे है इसका तो अनुमान लगाना भी संभव नहीं है .उत्तर प्रदेश  के पूर्वी तराई इलाके में स्वच्छ पेयजल कि एक बड़ी समस्या के कारण बरसात के मौसम में घरों में लगे साधारण हैंडपंप का पानी भी अत्यधिक प्रदूषित हो जाता है जिसके कारण छह वर्ष से बारह वर्ष तक के बच्चों को 'इन्सेफ्लितिस''  नाम की बीमारी अपना शिकार बना लेती है .संक्रमित पेयजल रक्त के माध्यम से बच्चों के मस्तिष्क में पहुंचकर तंत्रिकातंत्र पर हमला कर देता है .पिछले बीस वर्षों में ६५,००० बच्चों को अपना शिकार बनाने वाली बीमारी के कारणों का विश्लेषण करने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि यदि स्वच्छ पेयजल उपलब्ध हो तो इस बीमारी का शिकार बनने वाले मरीजों की संख्या में पचास प्रतिशत की कमी आ सकती है .जलजनित बीमारियों के तेज होते हमलों के कारण बच्चों के बाल झड़ने जैसी बीमारियाँ भी बढती जा रही है.
वायु प्रदूषण के प्रकोप से बचपन आज धुंआ पीता सा प्रतीत होता है.स्कूल बस के इन्तजार में खड़े बच्चे हो या घर में रसोई गैस के धुए को सूघते बच्चे --सब त्रस्त है साँस न आने से .बच्चों में बढती साँस की बीमारी आज चिंता का बड़ा कारण है .आज हमारे देश में दो करोड़ लोग ''दमा ''की समस्या से ग्रस्त है जिसमे एक बड़ा प्रतिशत हमारी भावी पीढ़ी का भी है . वाहनों की संख्या बढती जा रही है .कुल वायु प्रदूषण का सत्तर प्रतिशत इन वाहनों से निकलने वाले धुंए की वजह से ही है .एक अनुमान के अनुसार घरेलू प्रदूषण जो 'रसोई गैस के जलने आदि से होता है ' के कारण भी प्रतिवर्ष ५ लाख महिलाओ व् बच्चों की मौत हो जाती है .
बेतार के नेटवर्क के कारण भी कैंसर जैसी भयानक बीमारियाँ बच्चों को अपना शिकार बना रही है .वैज्ञानिकों ने हाल ही एक शोध में पाया कि जहाँ ऐसे टावर लगाये गए वहां के आस पास के पेड़ सूख गए --इससे उन अभिभावकों का भय सच साबित हुआ जिन्होंने ऐसे टावर बच्चों के स्कूल के पास लगाये  जाने का विरोध किया था .
        अपनी अगली पीढी को प्रदूषण के खतरों से बचाने के लिए अब हमे कमर कस लेनी चाहिए .हमे शुद्ध जल का समझदारी से प्रयोग करना चाहिए और उसे प्रदूषित होने से रोकना चाहिए .यथासंभव पेड़-पौधे लगाने चाहिए .निजी वाहनों के स्थान पर सार्वजनिक वाहनों का इस्तेमाल करना चाहिए .बच्चों को शुरू से ही पर्यावरण-संरक्षण की शिक्षा प्रदान करनी चाहिए .जब हम बच्चों  के लिए सुरक्षित पर्यावरण छोड़ेगे  तभी तो हम सुरक्षित भविष्य की नीव रख पायेगे ------
''बच्चे आखरी उम्मीद है
दुनिया  में / अच्छे  दिनों की  [कुमार विश्वबंधु]

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बचपन और पर्यावरण.---कविता वर्मा

>> शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

परिचय-कविता वर्मा,
पढ़ने की अभिरुचि ब्लॉगजगत तक खींच लाई,इसके विराट स्वरुप ने लेखन की चाह  को विस्तार दिया,और जिस उन्मुक्त ह्रदय से इसने मुझे अपनाया ,सराहा ,में अभिभूत हुई.नाम है कविता वर्मा ,मन की बाते विचार उलझने जो किसी से कह पाई वही शब्दों के रूप में निकल कर "कासे कहूँ "में समां गयी ....ब्लॉग ने कुछ कह पाने की पीड़ा को बखूबी सहलाया ,और मन की कही अनकही बाते यहाँ उंडेल कर में भारहीन हो कर उन्मुक्त आकाश में उड़ चली... 



 क्या खेले ?क्या खेले?सोचते सोचते आखिर ये तय हुआ नदी पहाड़ ही खेलते है
तेरी नदी में कपडे धोउं,
तेरी नदी में  रोटी पकाऊ,
चिल्लाते हुए बच्चे निचली जगह  को नदी और  ऊँचे ओटलो को पहाड़ समझ कर  खेल  रहे है ,नदी का  मालिक अपनी नदी  के लिए  इतना सजग है की उसमे कपडे धोने ,बर्तन  धोने से  उसे तकलीफ होती  है। 
गर्मियों की  चांदनी रात ,लाइट नहीं है अब अँधेरे  में क्या करे? एक जगह बैठे तो मच्छर काटते है ,नानी कहती  है ,
अरेजाओ धुप छाँव खेलो ,कितनी अच्छी चांदनी रात है,और बच्चे मेरी धूप और मेरी छाँव के मालिक बन जाते है।   
 त्ता इत्ता पानी गोल गोल रानी हो या अमराई में पत्थर पर गिरी केरीयों की चटनी पीसना ,खेलते हुए किसी कुए, की जगत पर बैठना, प्यास लगे और पानी हो तो किस पेड़ की पत्तियां चबा लेना ,या रंभाती गाय भैस से बाते करना,इस साल किस आम पर मोर आएगा किस पर नहीं ,गर्मी में नदी सूखेगी या नहीं, टिटहरी जमीन पर अंडे देगी या नहीं ?हमारा बचपन तो ऐसी ही जाने कितनी बातों से भरा पड़ा थाखेल खेल में बच्चे अपने परिवेश से कितने जुड़ जाते थे?कितनी ही बाते खुद - -खुद सीख जाते थे ,पता ही नहीं चलता थाहमारे खेल हमारे जीवन से परिवेश से पर्यावरण से इस तरह जुड़े थे की उन्हें कही अलग देखा ही नहीं जा सकता था
समय बदला नदियाँ सूख गयी, पहाड़ कट कर सड़के या खदाने बन गयी,सड़क की लाइट ने चाँद तारों की रोशनी छीन ली,अब पेड़ों से मोह रहा उनकी चिंता, पानी के लिए ट्यूब वेल गए या मीलों दूर से पाइप  लाइन ।       

 हमारा प्लेनेट खतरे में है ,अन्तरिक्ष से आयी आफत हम पर टूट पड़ी ,
पोपकोर्न खाते हाथ मुह तक आने से पहले ही रुक गए ,अब आयेंगे हमारे सुपर हीरो .........
ये लो गए पृथ्वी,अग्नि, वायु, जल ,आकाश और ये बनी सुपर पॉवर मिस्टर प्लेनेट ,और दुश्मन का हो गया खात्मा ,हमारी पृथ्वी बच गयी
एक गहरी सांस लेकर पोपकोर्न खाना फिर शुरू हो गया ,बिस्तेर पर पैर और फ़ैल गएलीजिये अब चाहे अन्तरिक्ष से कोई आफत आये या ओजोन लयेर में छेद हो ,चाहे कही आग लगे या बाढ़ जाये हमारा सुपर हीरो सब ठीक कर देगा ,हम खाते रहेंगे आराम से अपने घर में बिस्तर परन्यूज़ पेपर वाले शोर मचाएंगे,टीचेर कोई प्रोजेक्ट देगी ग्लोबल वार्मिंग पर हम नेट से जानकारी जुटा कर ढेर सारे कागजों को इस्तेमाल करके बढ़िया सा प्रोजेक्ट बनायेंगे और १० में से १० नंबर पायेंगेअब जिस पर्यावरण को कभी महसूस ही नहीं किया जिस की गोद में खेले ही नहीं उसके लिए संवेदनाये लाये कहाँ से ?
    बच्चे पर्यावरण से बस इसी तरह से जुड़े है अब इसमें उनका क्या दोष है ?
जो पर्यावरण हमारे बुजुर्गों ने हमारे लिए सदियों से सहेज कर रखा था ,उसे हमने अपने स्वार्थ के लिए किस तरह तहस नहस कर दिया है,और इसी के साथ छेन लिया है पर्यावरण सा मासूम बचपन .....

पर्यावरण सहेजे ,ताकि बचपन का भोलापण कायम रह पाए...

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पर्यावरण संरक्षण का मजाक--राम त्यागी

>> बुधवार, 13 अप्रैल 2011

राम त्यागी

मेरे बारे में 

मुरैना , ग्वालियर और मध्य प्रदेश के विभिन्न गावों और शहरों में बचपन और विद्यार्थी जीवन के अनमोल वर्ष गुजारने के बाद, दिल्ली , सिंगापुर जैसे अन्य महानगरो और देशो से गुजरते हुए आजकल अमेरिका के शिकागो के पास के एक कस्बे में कुछ सालो से डेरा डाले हुआ हूँ. मेरी नौकरी को मेहनत और लगन से कर रहा हूँ पर मेरा मन कहता है की जल्दी से छोड़ो कुछ और शार्थक करो, स्वच्छ राजनीतिक जीवन जीने का सपना है और लोगो के बीच रहकर उनके लिए काम कराने की तमन्ना है, लिखने और पड़ने में (विशेषकर भारत के बारे में) बहुत लगाव है, इसलिए ब्लॉग की दुनिया में आपके साथ हूँ. संयुक्त परिवार से आता हूँ, हिन्दी, हिंदुस्तान और भारतीय संस्कृति मेरे अभिन्न अंग है.

पर्यावरण संरक्षण का मजाक

climate_change
एक छोटा सा प्रोजेक्ट,  उसके क्रियान्वयन के लिए ढेरों मीटिंग, और उन सब मीटिंगों में अनगिनत प्रिंटआउट लेकर आते हुए लोग।  मीटिंग के अन्त में मिनट तो भेजे ही जायेंगे किसी के द्वारा अतः मीटिंग से  बाहर आते ही सारे कागज़ जो प्रिंट किये गये थे, फ़ेंक दिए जाते हैं।  फिर एक दस्तावेज (document)जब तक ड्राफ्ट से अपने पहले स्वरुप में पहुंचता है तब तक उसके रिव्यू में ही हजारों प्रिंट की हुई कॉपी खर्च हो जाती है चाहे उस दस्तावेज का फिर कभी उपयोग न हो। एक हलके से प्रोजेक्ट में इस तरह अनगिनत पता नहीं कितने कागज़ और उनको प्रिंट करने में असीम उर्जा खर्च कर दी जाती है। 
यह हाल है प्राईवेट कंपनियों का और बड़े बड़े बैंको का जो सरकारी कार्यालयों को अक्षम बोलते है और फिर खुद गो ग्रीन अभियान के राजदूत भी बनते हैं ! बेसुमार उर्जा और पैसा खर्च कर देते हैं हम आईटी के लोग मीटिंग के इन अभियानों में - हाथ में लैपटॉप, डेस्कटॉप,आई फोन, ब्लैकबरी होते हुए भी कितने पेपर बेरहमी से खर्च कर डालते हैं, शायद आईटी और बैंकिंग कंपनियों को फालतू का पर्यावरण संरक्षण का ढकोसला बंद कर देना चाहिए।
एक किसान मिटटी खोदते खोदते तो कभी वर्षा का इंतजार करते करते पसीना बहाता है और फिर भी इतनी मेहनत के बाद कुछ हजार भी कमा ले तो स्वर्ग सा पा लेता है तो एक तरफ हम लोग यहाँ हजारों रुपये एक मील (रात या दिन का एक वक्त का खाना ) में खर्च कर देते हैं फिर भी ये कम्पनियाँ मिलियन और बिलियन में लाभ दिखा देती हैं।
मनुष्य का दिमाग है जो जितना उपयोग कर लिए जाए बस उतना ही लक्ष्मी आसानी से उपलब्ध होने लगती है, पहले ट्रेडिंग (शेयर मार्केट में)  फोन से होती थी और फिर इलेक्ट्रोनिक ट्रेडिंग से लाभ का दायरा और गति और तेज हो गयी ! उससे भी आगे इन सबको मात देते हुए अब ट्रेडर सिर्फ बैठकर प्रोग्राम लिखता है और कंप्यूटर हाई फ्रीक्वेंसी ट्रेडिंग के जरिये सेकंड के सौवें भाग में ही करोडो ट्रेड करते हुए - पैसे के सौवे भाग के अंतर में भी करोडों बनाने में सक्षम हो जाता है ।  चाहे मार्केट गिर रहा हो या फिर बढ़ रहा हो ये हाई फ्रीक्वेंसी ट्रेडिंग हर परिस्थिति में छोटे से अंतर के आधार पर पैसा बनाने में सक्षम होती है और ये सक्षमता मनुष्य के दिमाग से ही मशीनों में संभव हो पाई है।  पर किस कीमत पर  ?
अल गोर ने पर्यावरण के ऊपर एक फिल्म बनाकर नोबल पुरुष्कार जीत लिया और उस फ़िल्म के प्रोमोसन के कार्यक्रमों में अंधाधुंध बिजली खर्च की गयी उसका क्या  ?  खैर अमेरिकन लोगों का नोबल पुरुष्कार पर तो पहल हक लगता है, पिछली साल ओबामा भी तो बिना कुछ किये नोबल उड़ा ले गये !

BP और आयल रिशाव - एक कविता 

BP के बिलियन हुए खाली
पर समुन्दर में तेल अभी भी रिसना है जारी
प्रकृति से छेड़खानी इसको पड़ी भारी
इधर उधर मुंह अब  ये ताके अनाड़ी
नए तरीके उर्जा के अपना लो मेरे भाई
नहीं तो ये प्रलय की हुंकार होगी कसाई
 

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बचपन और हमारा पर्यावरण--जी.के. अवधिया

>> सोमवार, 11 अप्रैल 2011

परिचय

नामः जी.के. अवधिया
जन्म तिथिः 20-07-1950
जन्म स्थानः रायपुर
शिक्षाः बी.एससी
अपने बारे मेंः मैं एक संवेदनशील, सादे विचार वाला, सरल, सेवानिवृत व्यक्ति हूँ। मुझे अपनी मातृभाषा हिंदी पर गर्व है। आप सभी लोगों का स्नेह प्राप्त करना तथा अपने अर्जित अनुभवों तथा ज्ञान को वितरित करके आप लोगों की सेवा करना ही मेरी उत्कट अभिलाषा है।

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बचपन और हमारा पर्यावरण
बचपन मनुष्य की वह अवस्था है जिसमें सीखने की सबसे अधिक ललक होती है क्योंकि एक बच्चे के लिए यह संसार एक अजूबा होता है तथा वह संसार को भली-भाँति जानने की चेष्टा करता है जिसके लिए नित नई-नई बातें सीखनी आवश्यक होती हैं। जितनी सीख बच्चे को अपने माता-पिता तथा गुरु से मिलती है उससे कहीं अधिक सीख उसे प्रकृति और पर्यावरण से मिलता है।

उषाकाल में आकाश की लालिमा, रक्तवर्ण सूर्य का उदय, लता-विटपों की हरीतिमा, सरिता का कलकल नाद के साथ प्रवाहित होना, गगनचुम्बी पर्वतमालाओं का सौन्दर्य जैसी प्राकृतिक दृश्य एवं प्राकृतिक क्रिया-कलाप मनुष्य के बचपन को जो ज्ञान प्रदान करती हैं वह जीवन भर के लिए उसके अचेतन मस्तिष्क की सम्पदा बनकर रह जाती हैं। मनुष्य के अचेतन मस्तिष्क में संचित पर्यावरण के द्वारा प्रदत्त यही ज्ञान मनुष्य के भीतर जीवनपर्यन्त भावनाएँ तथा संवेदनाएँ उत्पन्न करके उसे महान कलाकार, महान कवि, महान विचारक बनाता है।

पर्यावरण प्रदत्त इस ज्ञान से तो श्री राम जैसे ईश्वर के अवतार भी अछूते नहीं रह पाए हैं। बाल्यकाल में अयोध्या की भूमि, सर, सरोवर, नद्, पर्वत आदि से प्राप्त भावनाएँ और संवेदनाएँ ही वनवास के समय राम के मुँह से बरबस कहलवा देती हैं -

"हे जननी! तुम सदैव मेरे लिये प्रेरणामयी रही हो। तुम्हारी धूलि मुझे चन्दन की भाँति शान्ति देती है, तुम्हारा जल मेरे लिये अमृतमयी और जीवनदायी है।"

प्रकृति और पर्यावरण ही मनुष्य के सच्चे मित्र हैं, इसीलिए राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त जी अपने खण्डकाव्य "पंचवटी" में कहते हैं -

"सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,
अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!
अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,
पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥"

हमारा पर्यावरण सबसे अधिक प्रभावित हमारे बच्चों को ही करता है। बालकों की बाल-सुलभ जिज्ञासा और सीखने की ललक उन्हें पर्यावरण और प्रकृति के प्रति आकर्षित करती हैं। उषा की लालिमा, लता-विटपों-वृक्षों की हरीतिमा, सरिता का कलकल नाद, धरा से अम्बर का मिलन कराने की चेष्टा करने वाली पर्वतश्रेणियाँ बालकों के बालपन को जहाँ आह्लादित करती हैं वहीं उनके हृदय में भावनाओं तथा संवेदनाओं को जन्म देती हैं।

जरा अपने बचपन के दिनों को याद कीजिए! क्या आपको ऐसा अनुभव नहीं होता था कि आकाश को ऊँचे-ऊँचे वृक्ष, आम के बौर, पेड़ों की डालों में लगे स्वादिष्ट फल मनमोहक रंगों वाले फूल, पौधों के कोमल प्यारे पत्ते, झर-झर बहता पानी, सन-सन बहती हवा, सांझ की बेला में कलरव करते रंग-बिरंगे पंछी, हरे-भरे खेत, आदि, जो हमारे पर्यावरण के अंग हैं, हमारे ही जीवन के हिस्से हैं? इन सबके बगैर क्या आपका जीवन नीरस न हो जाता? क्या पर्यावरण के ये अंग आपके जीवन को ऊर्जा से भर नहीं देते थे?

आज धरा के गर्भ से विभिन्न खनिजों को प्राप्त करने के लिए और भूमि तथा पवर्तों को खोद डाला गया है और यह उत्खनन कार्य द्रुत गति से हुआ ही जा रहा है, वनों के वृक्षों को काट डाला गया है और बड़ी तेजी के साथ अभी भी काटा जा रहा है, सरिता के स्वच्छ जल में कारखानों की गंदगी को मिला डाला गया है और दिन-ब-दिन गंदगी बढ़ती ही जा रही है। क्या हमारे इन कार्यों से क्या प्रकृति का क्षरण और पर्यावरण का विनाश नहीं हो रहा है? हम इतने स्वार्थी हो गए हैं कि प्रकृति से सिर्फ प्राप्ति ही चाहते हैं और जिस प्रकृति से हमें प्राप्ति हो रही है उसकी प्रकृति के सन्तुलन के विषय में कुछ भी नहीं सोचते।

अधिक पुरानी बात नहीं है, महज चार सौ साल पहले याने कि सत्रहवीं शताब्दी तक हमारा देश विश्व का सर्वाधिक समृद्ध व धनाड्य देश था, देश में दूध-दही की नदियाँ बहती थीं और हमारा देश विश्व भर में "सोने की चिड़िया" के नाम से जाना जाता था। ऐसा सिर्फ इसीलिए था क्योंकि हमारे देश का पर्यावरण देश को प्रचुर मात्रा में शुद्ध जल, शुद्ध वायु, हरे-भरे वन आदि प्राकृतिक सम्पदा प्रदान करने में पूर्णतः समर्थ था।

आज हममें से अधिकतर लोगों की सन्तानों को प्रकृति के सौन्दर्य का दर्शन दुर्लभ हो गया है क्योंकि हमने अपने चारों ओर सीमेंट और कंक्रीट का जंगल बना डाला है। उषा की लालिमा जितना मन को मोहती है क्या विद्युत का कृत्रिम प्रकाश उतना ही मन को मोह सकता है? पर्वत के शिखर से प्राकृतिक रूप से झरता हुआ झरना हृदय को जितनी प्रसन्नता प्रदान करता है क्या सड़क के किनारे बनाया गया कृत्रिम रूप से बनाया गया तथा कृत्रिम प्रकाश से सजाया गया झरना हृदय को उतनी ही प्रसन्नता प्रदान कर सकता है? वनों में स्वच्छंद विचरण करने वाले वन्य पशुओं को देखकर जो आनन्द मिलता है, चिड़ियाघर में बन्द पशुओं को देखकर क्या वही आनन्द मिल सकता है?

पर्यावरण सदैव से मानव तथा उसके जीवन को प्रभावित करता रहा था, करता रहा है और करता रहेगा। हमारे पर्यावरण का अस्तित्व प्रकृति के कारण ही सम्भव है किन्तु दुःख की बात है कि आधुनिकता की दौड़ में अन्धे होकर हम प्रकृति को ही नष्ट किए जा रहे हैं। प्रकृति नष्ट होगी तो पर्यावरण भी प्रदूषित होकर नष्ट हो जाएगी जिसका परिणाम मानव के नाश के रूप में ही दृष्टिगत होगा। मानव का पूर्ण नाश तो जब होगा तब होगा, किन्तु प्रकृति के नाश तथा पर्यावरण के प्रदूषण ने हमारे बच्चों के बचपन का नाश करना अभी से ही जारी कर दिया है। यदि हमें हमारे बच्चों के बचपन को बचाना है तो हमें हमारे पर्यावरण को बचाना ही होगा।

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प्रमाणपत्र

प्रमाणित किया जाता है कि उपरोक्त लेख मेरा मौलिक तथा स्वरचित लेख है।

जी.के अवधिया

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