पर्यावरण बचाना है--सबको पेड़ लगाना है!!---धरती हरी भरी रहे हमारी--अब तो समझो जिम्मेदारी!! जल ही जीवन-वायू प्राण--इनके बिना है जग निष्प्राण!!### शार्ट एड्रेस "www.paryavaran.tk" से इस साईट पर आ सकते हैं

बिगड़ता मिजाज मौसम का----योगेश कुमार गोयल

>> रविवार, 20 फ़रवरी 2011

योगेश कुमार गोयल
समाचार-फीचर एजेंसियों ‘मीडिया केयर नेटवर्क’, ‘मीडिया एंटरटेनमेंट फीचर्स’ तथा ‘मीडिया केयर न्यूज’ में प्रधान सम्पादक। राजनीतिक, सामयिक तथा सामाजिक विषयों पर विश्लेषणात्मक लेख, रिपोर्ट व सृजनात्मक लेखन। दैनिक भास्कर, पंजाब केसरी, नवभारत टाइम्स, दैनिक जागरण, दैनिक ट्रिब्यून, स्वतंत्र वार्ता, राजस्थान पत्रिका, नवभारत, लोकमत समाचार, रांची एक्सप्रेस, अजीत समाचार, पा×चजन्य, कादम्बिनी, शुक्रवार, सरिता, मुक्ता, सरस सलिल, विचार सारांश, इंडिया न्यूज इत्यादि अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में विगत 20 वर्षों में विभिन्न विषयों पर 8500 से अधिक लेख, रिपोर्ट, फीचर इत्यादि प्रकाशित। आकाशवाणी रोहतक से दो दर्जन विशेष वार्ताएं प्रसारित। नशे के दुष्प्रभावों पर 1993 में ‘मौत को खुला निमंत्रण’ पुस्तक (पांच विभिन्न संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत), ‘हरियाणा साहित्य अकादमी’ के सौजन्य से 2009 में ‘जीव-जंतुओं की अनोखी दुनिया’ पुस्तक तथा 2009 में ‘तीखे तेवर’ पुस्तक प्रकाशित। पत्रकारिता व साहित्य के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए जिला प्रशासन रोहतक, वाईएमसीए इंस्टीच्यूट ऑफ इंजीनियरिंग, भारतीय दलित साहित्य अकादमी, विंध्यवासिनी जनकल्याण ट्रस्ट, अखिल भारतीय राष्ट्रभाषा विकास संगठन, अखिल भारतीय साहित्य कला मंच, अनुराग सेवा संस्थान इत्यादि अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।

सम्पर्क: मीडिया केयर ग्रुप, मेन बाजार बादली, जिला झज्जर (हरियाणा)-124105


पर्यावरण संरक्षण को लेकर आज न केवल भारत में बल्कि विश्वभर में चिन्ता निरन्तर गहरा रही है। दरअसल मौसम की मार अब किसी खास महीने में अथवा किसी खास देश पर देखने को नहीं मिल रही बल्कि मौसम की यह मार हर जगह, हर कहीं साल दर साल लगातार बढ़ रही है बल्कि अब तो ऐसा लगने लगा है, जैसे हर मौसम अपनी मारक क्षमता दिखाने के लिए ही आता है। गर्मी में जहां पारा 47-48 डिग्री तक जा पहुंचता है, वहीं सर्दियों में यह अपेक्षाकृत गर्म इलाकों में भी लोगों को बुरी तरह कंपकंपा जाता है और बरसात में कहीं इस कदर बारिश होती है कि लोग बाढ़ की विभीषिका झेलने को विवश हो जाएं तो कहीं लोग वर्षा ऋतु में भी एक-एक बूंद पानी को तरसते दिखाई पड़ते हैं और अकाल की नौबत आ जाती है।
 कुछ वर्ष पूर्व जनवरी माह के शुरू में खासतौर से उत्तर भारत में मौसम ने जो सितम ढ़ाया था, उससे हर कोई हतप्रभ था। तब दिल्ली में जहां पारे ने 0.2 डिग्री पर पहुंचकर 70 साल का रिकार्ड ध्वस्त कर दिया था, वहीं कश्मीर की डल झील इस कदर जम गई थी कि लोगों ने उस पर जमकर क्रिकेट खेला, कुछ अन्य हिस्सों में पारा शून्य डिग्री से भी नीचे पहुंच गया था तो ठंडी जगह माने जाने वाले शिमला में उसी दौरान तापमान छह डिग्री दर्ज किया गया था। तब एक ओर जहां एकाएक बढ़ी ठंड ने जनजीवन अस्त-व्यस्त कर जान-माल को काफी नुकसान पहुंचाया था, वहीं जनवरी के दूसरे पखवाड़े में मौसम बहुत काफी गर्म रहा था। इसे मौसम का बिगड़ता मिजाज नहीं तो और क्या माना जाए?
 अमेरिका में कैटरीना और रीटा नामक तूफानों के चलते हुई भयानक तबाही, भारतीय उपमहाद्वीप में आया विनाशकारी भूकम्प, भारत में इस वर्ष कई राज्यों में आई भयानक बाढ़, क्या इन्हें भी प्रकृति का प्रकोप ही नहीं माना जाएगा? अंटार्कटिका में पिघलती बर्फ और वहां उगती घास ने भी सबको हैरत में डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी है लेकिन यह सब हमारे दुष्कृत्यों का ही नतीजा है क्योंकि प्रकृति से हमारी छेड़छाड़ जरूरत से ज्यादा बढ़ गई है तथा पर्यावरण संतुलन को हमने बुरी तरह बिगाड़ दिया है। हमारी लापरवाहियों का ही नतीजा है कि भूगर्भीय जल भी अब दूषित होने लगा है और बढ़ते प्रदूषण के चलते जहरीली गैसें ‘एसिड’ की बरसात करने लगी हैं।
 पृथ्वी का निरन्तर बढ़ता तापमान और जलवायु में लगातार हो रहे भारी बदलाव आज किसी एक देश के लिए नहीं बल्कि समूचे विश्व में मानव जीवन के लिए गंभीर खतरा बनते जा रहे हैं। मौसम का बिगड़ता मिजाज मानव जाति, जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों के लिए तो बहुत खतरनाक है ही, पर्यावरण संतुलन के लिए भी एक गंभीर खतरा है। हालांकि प्रकृति बार-बार अपने प्रकोप, अपनी प्रचंडता के जरिये हमें इस ओर से सावधान करने की भरसक कोशिश भी करती है पर हम हैं कि लगातार इन खतरों की अनदेखी किए जा रहे हैं। पर्यावरण का संतुलन जिस कदर बिगड़ रहा है, ऐसे में जरूरत इस बात की है कि बचपन से ही हमें पर्यावरण की हानि से होने वाली गंभीर समस्याओं के बारे में सचेत किया जाए और यह सिखाया जाए कि हम अपने-अपने स्तर पर पर्यावरण संरक्षण में या भागीदारी निभा सकते हैं।
 विशेषज्ञों का मानना है कि पिछले 10 हजार वर्षों में भी पृथ्वी पर जलवायु में इतना बदलाव और तापमान में इतनी बढ़ोतरी नहीं देखी गई, जितनी हाल के कुछ ही वर्षों में देखी गई है। मौसम के इस बदलते मिजाज के लिए औद्योगिकीकरण, बढ़ती आबादी, घटते वनक्षेत्र, वाहनों के बढ़ते कारवां तथा तेजी से बदलती जीवनशैली को खासतौर से जिम्मेदार माना जा सकता है। ‘ग्लोबल वार्मिंग’ की विकराल होती समस्या के लिए औद्योगिक इकाईयों और वाहनों से निकलने वाली हानिकारक गैसें, कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, मीथेन इत्यादि प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं, जिनका वायुमंडल में उत्सर्जन विश्वभर में शुरू हुई औद्योगिक क्रांति के बाद से काफी तेजी से बढ़ा है।
 पृथ्वी तथा इसके आसपास के वायुमंडल का तापमान सूर्य की किरणों के प्रभाव अथवा तेज से बढ़ता है और सूर्य की किरणें पृथ्वी तक पहुंचने के बाद इनकी अतिरिक्त गर्मी वायुमंडल में मौजूद धूल के कणों एवं बादलों से परावर्तित होकर वापस अंतरिक्ष में लौट जाती है। इस प्रकार पृथ्वी के तापमान का संतुलन बरकरार रहता है लेकिन कुछ वर्षों से वायुमंडल में हानिकारक गैसों का जमावड़ा बढ़ते जाने और इन गैसों की वायुमंडल में एक परत बन जाने की वजह से पृथ्वी के तापमान का संतुलन निरन्तर बिगड़ रहा है। दरअसल हानिकारक गैसों की इस परत को पार करके सूर्य की किरणें पृथ्वी तक तो आसानी से पहुंच जाती हैं लेकिन यह परत उन किरणों के वापस लौटने में बाधक बनती है और यही पृथ्वी का तापमान बढ़ते जाने का मुख्य कारण है।
 जिस प्रकार वनस्पतियों के लिए (पौधों के शीघ्र विकास के लिए) बनाया जाने वाला ‘ग्रीन हाउस’ (शीशे का घर) सूर्य की ऊर्जा को इस ग्रीन हाउस के अंदर तो आने देता है लेकिन ऊष्मा को बाहर नहीं निकलने देता और परिणामतः ग्रीन हाउस के भीतर का तापमान काफी बढ़ जाता है, ठीक उसी प्रकार वायुमंडल में विभिन्न जहरीली गैसों की एक परत बन जाने से वह परत भी इस ग्रीन हाउस की भांति सूर्य की गर्मी को परत को पार करके पृथ्वी तक जाने तो देती है लेकिन वापस नहीं लौटने देती। इसी वजह से इस प्रक्रिया को ‘ग्रीन हाउस इफैक्ट’ कहा जाता है और हानिकारक गैसों की इस परत को ‘ग्रीन हाउस लेयर’ तथा इस परत के निर्माण में सक्रिय गैसों को ‘ग्रीन हाउस गैस’ कहा जाता है।
 मानव निर्मित ग्रीन हाउस गैसों में ‘क्लोरो फ्लोरो कार्बन’ परिवार की गैसें शामिल हैं, जो औद्योगिक इकाईयों में बड़ी मात्रा में उपयोग की जाती हैं। इन गैसों में कोयले, पैट्रोल, डीजल, तेल, जीवाश्म ईंधन आदि से उत्पन्न होने वाली कार्बन डाइऑक्साइड गैस सर्वाधिक खतरनाक ‘ग्रीन हाउस गैस’ मानी जाती है। पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार 1960 के बाद से ही वायुमंडल में इस गैस की मात्रा में 25 फीसदी वृद्धि हुई है। वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बढ़ते जाने के साथ-साथ ज्यों-ज्यों वायमुंडल में ग्रीन हाउस लेयर की मोटाई बढ़ती जा रही है, पृथ्वी का तापमान भी उसी के अनुरूप लगातार बढ़ रहा है। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि पिछली सदी के दौरान वर्ष दर वर्ष पृथ्वी का तापमान बढ़ता रहा और पिछली सदी का अंतिम दशक तो विगत 1000 से भी अधिक वर्षों के मुकाबले बहुत ज्यादा गर्म रहा। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार पृथ्वी के इतिहास में कोई भी जलवायु परिवर्तन इतनी तीव्र गति से नहीं हुआ। विशेषज्ञों का मानना है कि आगामी 50 वर्षों तक पर्यावरण प्रदूषण और पृथ्वी के तापमान में बढ़ोतरी की यही गति जारी रही तो इस सदी के मध्य तक इस तापमान में 3 से 5 डिग्री सेंटीग्रेड तक की वृद्धि हो सकती है और ऐसा हुआ तो ‘महाप्रलय’ की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता। संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के अनुसार सन् 2050 तक पृथ्वी के वायुमंडल का तापमान 2.8 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ने की संभावना है।
 इसलिए यदि समय रहते ग्रीन हाउस गैसों के वायुमंडल में उत्सर्जन पर अंकुश न लगाया गया तो आने वाले वर्षों में इसके बहुत विनाशकारी परिणाम सामने आएंगे। इससे विश्व भर में मौसम का संतुलन बुरी तरह डगमगा जाएगा और ऋतुओं का आपसी संतुलन बिगड़ जाने से एक प्रकार से महाप्रलय की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। पृथ्वी पर वायुमंडल का तापमान निरन्तर बढ़ते जाने से हिमशिखर पिघलते जाएंगे और इस तरह बर्फ पिघलने से समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा तथा समुद्र तल ऊंचे उठने व जलस्तर बढ़ने के कारण एक ओर जहां समुद्रों के किनारे बसे अनेक शहर जलमग्न हो जाएंगे, वहीं बाढ़ की विभीषिका भी उत्पन्न होगी तथा कृषि योग्य भूमि निरन्तर घटती जाएगी। इस प्रकार दुनिया भर में अकाल जैसी भयानक समस्या के सिर उठाने से करोड़ों लोग भूखे मरने के कगार पर पहुंच जाएंगे।
 बहरहाल, ग्लोबल वार्मिंग की समस्या जिस प्रकार निरन्तर विकराल होती जा रही है और मौसम के इस बदलते मिजाज का खामियाजा भी चूंकि विकसित देशों के बजाय विकासशील देशों को ही अधिक भुगतना पड़ता है, अतः विकासशील देशों को चाहिए कि वे अमेरिका सरीखे विकसित देश पर इस बात के लिए दबाव बनाएं कि वह प्रकृति के विरूद्ध अपनी छेड़छाड़ बंद कर पर्यावरण सुधार की मुहिम में अपना भी महत्वपूर्ण योगदान दे।
योगेश कुमार गोयल

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स्‍वस्‍थ पर्यावरण विकसित होते बचपन की प्रथम आवश्‍यकता---संगीता पुरी

>> शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011


मेरा फोटो

संगीता पुरी
पोस्‍ट-ग्रेज्‍युएट डिग्री ली है अर्थशास्‍त्र में .. पर सारा जीवन समर्पित कर दिया ज्‍योतिष को .. अपने बारे में कुछ खास नहीं बताने को अभी तक .. ज्योतिष का गम्भीर अध्ययन-मनन करके उसमे से वैज्ञानिक तथ्यों को निकलने में सफ़लता पाते रहना .. बस सकारात्‍मक सोंच रखती हूं .. सकारात्‍मक काम करती हूं .. हर जगह सकारात्‍मक सोंच देखना चाहती हूं .. आकाश को छूने के सपने हैं मेरे .. और उसे हकीकत में बदलने को प्रयासरत हूं .. सफलता का इंतजार है।


विद्यार्थी जीवन में हमारे पास लेखों के लिए गिनेचुने विषय होते थे , उनमें से एक बडा ही महत्‍वपूर्ण विषय था ‘विज्ञान:वरदान या अभिशाप’। आपने परिवारवालों के वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मेरे बाल मस्तिष्‍क पर पूरा प्रभाव था , मैं विज्ञान के वरदान होने के पक्ष में ही ढेर सारे तर्क देती। विज्ञान अभिशाप भी हो सकता है , इसके बारे में जानकारी निबंध की उन पुस्‍तकों में मिलती , जिसके लेखक अवश्‍य दूरदृष्टि रखने वाले थे। हमारा ज्ञान तब कितना सीमित था , पर आज सबकुछ स्‍पष्‍ट नजर आ रहा है। देखते ही देखते परिदृश्‍य बदल गया है, औद्योगिक विकास के क्रम में फैक्ट्रियों से निकलने वाले धुंए , केमिकलयुक्त पानी और अपशिष्ट पदार्थों ने पर्यावरण को भारी क्षति पहुंचायी है। इससे सर्वाधिक नुकसान हमारे बच्‍चों को पहुंचा है , क्‍यूंकि स्‍वच्‍छ एवं स्‍वस्‍थ पर्यावरण विकसित होते बचपन की पहली आवश्‍यकता है।
रासायनिक खाद और कीटनाशकों के सरकार के बेमतलब बढावा देने से जहां मिट्टी के सूक्ष्मजीव और जीवाणु के खात्मे से देशभर के खेतों की मिट्टी बेजान हो गई है, वहीं खाद्य पदार्थों में पोषक तत्‍वों का अभाव से बचपन के शारीरिक और मानसिक विकास पर बुरा प्रभाव पड रहा है। भारत में हजारों साल से प्रचलित जैविक खेती से मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी नहीं होती और कम पानी में भी इसमें नमी बनी रहती है। रासायनिक खाद के उपयोग पर जोर ने पशुपालन को भी चौपट किया है, जिससे स्थिति और बिगडी है। सरकार गाय या भैंस पालने वाले खेतिहर को सीधे आर्थिक सहायता देकर नकली दुग्‍ध पदार्थों का कारोबार रोक सकती है , जिसके कारण बच्‍चों का स्‍वास्‍थ्‍य पर बुरा प्रभाव पड रहा है।
प्रकृति में जीव जंतु से लेकर पेड पौधे तक सब आपस में जुड़े हुए हैं। पर स्‍वार्थपूर्ण विकास के एक अंधे रेस के कारण जाने कितने वनस्पतियों के साथ बहुत से जीव विलुप्त होने की कगार पर है । बगीचों से ताजे फल और सब्जियों को तोडकर खाने और भांति भांति के तितलियों, परिंदों के पीछे भागने का सुख आज के बच्‍चों को नहीं । वनस्‍पतियों और जीवों की सुरक्षा और उनके बढ़त के उपाय कर उनका बचपन लौटाया जा सकता है। इसके अलावे प्लास्टिक ने भी छोटी-बड़ी नदियों को कचरे से भर दिया है, जिसके कारण आज गंगा जैसी पवित्र नदी भी प्रदूषित है। पीने के पानी की कौन कहे , प्राणवायु के लिए कितने बच्‍चे इनहेलर के सहारे जीने को बाध्‍य हैं , बाकी इलाज के अभाव में मौत को गले लगा रहे हैं।
राष्ट्रीय आय की गणना में आज वर्ष भर में वस्तुओं और सेवाओं के शुद्ध उत्पादन को शामिल किया जाता है, परंतु इस प्रक्रिया में जो वायुमण्डल प्रदूषित होता है , वन कटते हैं , भूमि बंजर होती है , नदियों, झीलों के पानी गंदले होते हैं , मछलियां नष्ट होती हैं , उनकी गणना नहीं की जाती। वास्‍तव में राष्‍ट्रीय आय नहीं , `हरित राष्ट्रीय आय' की गणना की जानी चाहिए। आज बचपन में ही मोटापा, कमजोरी, आंखों में चश्मा लग चुका होता है, चालीस की उम्र से पहले लोग शुगर , हाई ब्लडप्रेशर , हाइपर टेंशन के शिकार हो जाते हैं, प्रौढावस्‍था में ही ओपन हार्ट सर्जरी की मजबूरी से जूझते है । बीमारियों के इलाज का खर्च भी राष्‍ट्रीय आय में घटाने से हमें सही विकास दर प्राप्‍त होगा
वास्‍तव में पर्यावरण को लेकर कभी भी सरकार गंभीर नहीं रही! विकास के लिए जब भी पेड काटे जाएं, सरकार द्वारा कंपनियों को उतने ही पेड लगाने की जिम्‍मेदारी भी दी जाए। इसके अलावे अधिकाधिक उपयोग होने से कोयले , तेल और गैस के भंडार लगातार समाप्‍त हो रहे हैं , उनपर भी रोक लगनी चाहिए। जल संरक्षण, पौधरोपण, ध्वनि व वायु प्रदूषण कम कर ही सरकार देश को या आने वाली पीढी को सुरक्षित रख सकते हैं। एक फलदार पेड़ अपने पूरे जीवन में पंद्रह लाख से अधिक का लाभ दे जाता है। पर विदेशी नीतियों के अंधानुकरण और अपने प्राकृतिक संसाधनों के प्रति व्‍यक्ति और सरकार , दोनो की उपेक्षापूर्ण रवैये ने इस युग में बच्‍चों को कंप्‍यूटर और कार भले ही आसानी से दे दिया हों , शुद्ध जल, पौष्टिक खाना और मनोनुकूल वातावरण नहीं दे पा रहे।
रामराज्य का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी ने पर्यावरण को बनाए रखने में राजा और प्रजा के संयुक्त उत्तरदायित्व पर जोर दिया था। इस्‍तेमाल न होने पर बिजली से चलनेवाली चीजें बंद रखकर , पानी गर्म करने के लिए सोलर हीटर का उपयोग जैसे व्‍यक्तिगत उपायों से पर्यावरण को बचाने में मदद मिलेगी। पटाखों से पर्यावरण को और क्षति न पहुंचाएं। गाडी की जगह साइकिल चलाकर खुद के स्‍वास्‍थ्‍य को ठीक रखने के साथ साथ एक आदर्श भी स्‍थापित किया जा सकता है। हम कहीं भी जाएं, यादगारी के लिए कुछ पेड या पौधे ही लगा दें। किसी अतिथि का सम्‍मान करते हुए पुष्‍पमालाओं की जगह गमले में लगा पौधा भेंट करें। उत्तराखंड की कन्‍याओं ने दूल्हों के जूते चुरा कर उनसे नेग लेने की जगह उनसे पौधे लगवाने की एक सार्थक पहल की है। आने वाले युग में स्‍वस्‍थ पर्यावरण के लिए बच्‍चों को इसके प्रति जिम्‍मेदार बनाएं। बूंद-बूंद से ही तो सागर बनता है, एक करे तो उससे प्रेरित होकर दूसरा भी करेगा।
इतने दिनों बाद अब विश्‍व को पर्यावरण-रक्षा की चिंता हुई है , हमारे ऋषि मुनियों ने हजारो वर्ष पहले इस बारे में सोंच लिया था। हमारी महान संस्‍कृति ने लोगों को हमेशा से पेड़ों की रक्षा करना, नदियों को मां मानना , पीपल, बरगद, तुलसी जैसे पौधों और जलाशयों की पूजा करना, जीव जंतुओं की रक्षा करना सिखलाया। ग्रहों के बुरे प्रभाव को दूर करने के लिए भी विभिन्‍न पेड पौधों के तनों , छालों , फूल पत्‍तों के उपयोग की सलाह हमारे ज्‍योतिष के ग्रंथों में है। स्वामी विवेकानंदजी भी पर्यावरण की रक्षा के लिए भारतीय अध्यात्म और दर्शन को उपयोगी मानते थे, आज की पीढी इसे जितनी जल्‍द लें उतना ही अच्‍छा है। प्रकृति संतुलन करना अच्‍छी तरह जानती है, आनेवाली पीढी के बचपन को बचाने के लिए, उनको स्‍वच्‍छ और संतुलित पर्यावरण देने के लिए आज के कपूतों को मिटाने के लिए उसे कडा कदम उठाना होगा।

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कुलवंत सिंह का आलेख --- पर्यावरण

>> बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

परिचय : कुलवंत सिंह,  एक जागरुक नागरिक,
उम्र : 42 साल
पता : 2 डी, बद्रीनाथ बिल्डिंग, अणुशक्तिनगर, मुंबई - 400094
फोन :  022-25595378


पर्यावरण को प्रदूषण से बचाना नितांत आवश्यक है ।  पिछले कुछ वर्षों से हम प्रदूषण के कारण अनेक समस्‍याओं को झेल रहे हैं। इसका प्रमुख कारण है - प्‍लास्टिक निर्मित वस्‍तुओं, पैकिंग सामग्री और थैलियां जो कि प्रयोग के बाद यूं ही फेंक दी जाती हैं।   प्‍लास्टिक को हम आज के युग की देन कह सकते हैं। सेलुलोज नाइट्रेट से पहली बार कृत्रिम प्‍लास्टिक तैयार किया गया था।  इसका प्रयोग पिछले कई दशकों में बहुत तेजी से बढ़ा है।  जिसके कारण हमारे सामने एक नया संकट उपस्थित हो गया है - पर्यावरण प्रदूषण का। प्‍लास्टिक को प्रयोग के बाद फेंकने के कारण यह समस्या अति गंभीर हो गई है ।  क्योंकि प्लास्टिक कई अन्य पदार्थों की तरह अपने आप विघटित नही होता है। Bio non degradable  (स्वत: विघटित न) होने के कारण यह सदियों तक यूं ही पड़ा रहता है । पूरा देश इस समस्या से त्रस्त है ।  कुछ राज्‍यों ने  तो प्‍लास्टिक की  थैलियों के इस्‍तेमाल पर पाबंदी भी लगा दी है। कुछ पर्यटन क्षेत्रों में भी प्लास्टिक की वस्तुओं के प्रयोग पर पाबंदी है।
आखिर प्‍लास्टिक है क्‍या ?  प्‍लास्टिक एक किस्‍म का ' पॉलिमर या बहुलक' है जो छोटे छोटे एककों या ' मोनोमर' बहुयौगिकों की रासायनिक क्रियाओं के परिणाम स्‍वरूप उत्‍पन्‍न होता है। प्‍लास्टिक जिन ए‍कक या मोनोमर से बनता है उनमें से किसी के भी गुण उसमें नहीं होते। वह उनसे भिन्‍न अलग गुणों वाला पदार्थ होता है। प्राकृतिक रूप से भी पालिमर पाए जाते हैं। जैसे कि-रेशम और रबड़ आदि।  प्‍लास्टिक विभिन्‍न प्रकार का हो सकता है। जैसे कि - पॉलिथिलीन या पॉलिथिन, पॉलिविनाइल क्‍लोराइड (पीवीसी), पॉलि एमाइड, पॉलिस्‍टाइरिन, एक्राइलोनाइट्रेट ब्‍यूटाडिन स्‍टाइरिन, पॉलिइथिलीन टैरिथेलेट इत्यादि। यह विभिन्‍न कार्यों में प्रयुक्त होती हैं। कम घनत्‍व वाले पॉलिथिन से थैलियां बनाई जाती हैं, ज्‍यादा घनत्‍व वाले पॉलिथिन से पीने के पानी के क्रेट  बनाए जाते हैं।  पीवीसी से पानी के  पाइप, बिजली के तार  इत्यादि  बनाये जाते हैं। पॉलि एमाइड से डोरी, खिलौने आदि बनाये जाते हैं जबकि पॉलिस्‍टाइरिन पैकेजिंग में प्रयुक्त होता है। एक्राइलो नाइट्रेट ब्‍यूटाडिन स्‍टाइरिन से फोम वगैरह बनाये जाते हैं।    प्‍लास्टिक आज हमारे जीवन के हर क्षेत्र में प्रयुक्त हो रहा है।  प्‍लास्टिक की मांग दिनों दिन  बढ़ती ही जा रही है।  इसके मुख्य कारण हैं - कम लागत, सस्‍ती दरों पर मिलना,  किसी भी प्रकार के आकार में आसानी से बना सकना और हल्‍का होना। लेकिन प्‍लास्टिक की समस्‍या है - इसका नष्‍ट न होना। आसानी से नष्‍ट न होने की वजह से यह प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण बन गई है। प्‍लास्टिक के अंधाधुंध उपयोग के बाद इसे फेंक दिया जाता है। नष्‍ट न होने की वजह से  यह कचरा उत्पादन का एक बड़ा कारण बन गया है। 
तो फिर इसका समाधान क्या है?   प्रयुक्त प्‍लास्टिक को यां तो जला दिया जाये, रीसाइकिल (पुनर्चक्रण) किया जाए  या फिर  जमीन में दबा दिया जाय।  प्‍लास्टिक को जलाने से जो गैसें निकलती हैं  वे अत्‍यंत हानिकारक हैं। जमीन में दबाने से भी यह नष्‍ट तो नहीं होता है। तो इसका एक ही उपाय है - पुनर्चक्रण।  हमारी यहां हर जगह  कचरा फेकने की आदत से हम देखते हैं कि हर जगह थैलियां, पानी की बोतलें, चाय के कप या  ग्लास बिखरे दिखाई देते हैं। ये  कचरा पर्यावरण के लिए खतरा हैं - प्‍लास्टिक कचरे से जल या मिट्टी तक आक्‍सीजन पहुंचने में रुकावट आती है।  मिट्टी की उर्वरा शक्ति कम होती है।  निकासी नालों को अवरूद्ध कर मल-जल निकासी या ड्रेनेज सिस्‍टम को ठप कर देते हैं। खाद्य सामग्रियों में प्रयुक्त होने के बाद फेंके गये प्‍लास्टिक के बैग कई बार पशु खा लेते हैं। जिससे उन्हे तरह तरह की बीमारियां हो जाती हैं। रंगीन प्लास्टिक थैलियां तो और भी नुकसानदायक हैं।
समस्‍या की गंभीरता से स्‍पष्‍ट हो जाता है कि इसका समाधान आसान नहीं है। कई राज्यों ने इसके लिए कानून बनाए हैं। जैसे 20माइक्रॉन से मोटी थैली का ही प्रयोग करें। ताकि इनके पुनर्चक्रण में आसानी हो। कुछ पर्यटन क्षेत्रों में तो इन पर पूरी तरह से पाबंदी है।  
आइए हम भी देश को इस समस्या से निपटने में  यथा संभव अपना सहयोग दें। एवं प्लास्टिक की वस्तुओं का प्रयोग कम से कम करें।
कुलवंत सिंह 

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राहूल सिंह जी का आलेख

>> सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

राहुल सिंह रायपुर छत्तीसगढ

ब्लॉग सिंहावलोकन



सभ्यता का आरंभ उस दिन हुआ, जिस दिन पहला पेड़ कटा (छत्‍तीसगढ़ी में बसाहट की शुरुआत के लिए 'भरुहा' काटना मुहावरा है) और यह भी कहा जाता है कि पर्यावरण का संकट आरे के इस्तेमाल के साथ शुरू हुआ। तात्पर्य यह कि पर्यावरण की स्थिति, प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग से नहीं बल्कि दोहन से असंतुलित होती है। छत्तीसगढ़ की प्राचीन राजधानी रतनपुर को कृष्ण-मोरध्वज की कथा-भूमि माना जाता है। कथा में राजा द्वारा स्वेच्छापूर्वक आरे से आधा काट कर शरीर दान का प्रसंग है। स्थान नाम आरंग की व्युत्पति को भी आरे और इस कथा से संबद्ध किया जाता है। बहरहाल यह कथा छत्तीसगढ़ में पर्यावरणीय चेतना बीज के रूप में भी देखी जा सकती है।

कथा का असर, इतिहास में डेढ़ सौ साल पहले बंदोबस्त अधिकारी मि. चीजम ने दर्ज किया है कि अंचल में लगभग निषिद्ध आरे का प्रचलन मराठा शासक बिंबाजी भोंसले के काल से हुआ और तब तक की पुरानी इमारतों में लकड़ी की धरन, बसूले से चौपहल कर इस्तेमाल हुई है। परम्परा में अब तक बस्तर के प्रसिद्ध दशहरे के लिए रथ के निर्माण में केवल बसूले का प्रयोग किया जाता है। अंचल में आरे के प्रयोग और आरा चलाने वाले पेशेवर 'अरकंसहा' को निकट अतीत तक महत्व मिलने के बाद भी अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता था।


पर्यावरण का संरक्षण नीति और योजना मात्र से नहीं होगा, पर्यावरण को जीवन का समवाय महसूस करते रहना होगा। अन्यथा यह सब 'रस्मी' और पर्यावरण संरक्षण 'नारा' बनकर रह जाएगा। यदि पेड़ छाया के लिए और तालाब का निस्तारी इस्तेमाल नहीं रहा तो उन्हें सिर्फ पर्यावरण की दुहाई देकर बचाने का प्रयास संदिग्ध बना रहेगा। पीढ़ियों से इस्तेमाल हो रहे कुओं का नियमित उपयोग बंद होते ही उसके कूड़ादान बनते देर नहीं लगती। विश्व पर्यावरण दिवस का उत्साह कार्तिक स्नान और अक्षय नवमी, वट सावित्री, भोजली पर भी बना रहना जरूरी है। बसंत में टेसू, पलाश और आम के बौर देखने और कोयल की कूक सुनने की ललक रहे तो पर्यावरण रक्षा की उम्मीद बनी रहेगी। ज्यों माना जाता है कि शेर से जंगल की और जंगल से शेर की रक्षा होती है वैसे ही पर्यावरणीय उपादान, समुदाय की दिनचर्या के केन्द्र में हों, तभी उनका बचा रहना संभव होगा।


पिछले विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून 2009) पर सुभाष स्टेडियम कान्फ्रेंस हाल, रायपुर में नगर पालिक निगम एवं सिटी टेक्नीकल एडवायजरी ग्रुप के तत्वावधान में पर्यावरण संरक्षण पर संगोष्ठी आयोजित थी। कार्यक्रम के पहले अंधड़ और गरज-चमक के साथ बारिश हुई। बिजली गुल हो गई। कार्यक्रम मोमबत्ती जलाकर पूरा किया गया। उस दिन उत्‍पन्‍न व्‍यवधान आज प्रकृति की नसीहत जैसा लगता है। वैसे भी हमारी परम्परा में प्रकृति की विषमता को अनिवार्यतः विपक्ष के बजाय मददगार मानने की उदार सोच है। कालिदास पूर्वमेघ में उज्‍जयिनी पहुंचे मेघ से कहते हैं कि रमण हेतु जाती नायिका को बिजली चमका कर राह दिखाना, गरज-बरस कर डराना नहीं। एक गीत अनुवाद में यह भी जुड़ गया है कि चमक कर उसकी चोरी न खोल देना। पर्यावरण संरक्षण के लिए, प्रकृति अनुकूलन की ऐसी सोच को, इसमें निहित पूरी परम्परा को कायम रखने की जरूरत है।


पर्यावरण की चर्चा करते और सुनते हुए 'डरपोक मन' में यह आशंका भी बनी रहती है कि बाजारवाद के इस दौर में पर्यावरण की रक्षा करने के लिए कोई ऐसी मशीन न ईजाद हो जाए, जिसका उत्पादन बहुराष्ट्रीय कंपनियां करने लगे और वैश्विक स्तर पर हर घर के लिए इसे अनिवार्य कर दिया जाए।


ईश्वरीय न्याय की व्याख्या आसान नहीं लेकिन उससे न्याय की अपेक्षा करते हुए उसकी कृपा, उसके अनुग्रह की चाह सबको होती है। न्याय करते हुए फरियादी की व्यक्तिगत परिस्थितियों का ध्यान ईश्वर रखेगा (मेरा पक्ष लेगा), ऐसी कामना, यह विश्वास बना रहता है। लेकिन प्रकृति का न्याय पूरी तरह तटस्थ और पक्षरहित होता है, जिसमें पहले-पहल गलती होने के कारण 'रियायत' और बार-बार गलती की 'अधिक सजा' नहीं होती तो अच्छे कामों का पुरस्कार अनिवार्यतः, 'श्योर शाट गिफ्ट स्कीम' जैसा मिलता ही है। इसलिए प्रकृति के न्याय पर भरोसा रखें और पर्यावरण को विचार और चर्चा के विषय के साथ-साथ दैनंदिन जीवन से अभिन्न बने रहने की संभावना और प्रयास को बलवती करें। स्वामी विवेकानंद होते तो शायद कहते कि 'उठो, भगवान के भरोसे मत बैठे रहो, इसके लिए तुम्हें ही आगे आना होगा, हम सबको मिलकर बीड़ा उठाना होगा।

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सीमा गुप्ता जी का आलेख "बचपन और पर्यावरण"

>> मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

पर्यावरण पर लेख प्रकाशन प्रारंभ कर रहे हैं। हमें सबसे पहले सीमा गुप्ता जी का लेख प्राप्त हुआ। विषय था "बचपन  और पर्यावरण"।

नाम :
सीमा गुप्ता
जन्म :
अम्बाला (हरियाणा) 11 oct
शिक्षा :
Master's Degree-Post Graduate (M.Com) from CH CHARAN SINGH UNIVERSITY
QUALIFIED “LEAD AUDITOR”  COURSE ( for quality system) FROM IRCA LONDON THROUGH M/S TQA DELHI IN JUNE’2000. CERTIFICATE NO. 10.00.92
लेखन और प्रकाशन :
 मेरी कई कविताएँ और नज्मे  पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। मेरी अधिकतर कविताओं में पीड़ा, विरह, बिछुड़ना और आँसू होते हैं; क्यों – शायद मेरे अन्तर्मन से उभरते हैं।
मेरी कविताएँ अंतरजाल पर “हिन्दी युग्म” "साहित्य कुंज" "स्वर्ग विभा " कवी मंच", "कथा व्यथा" "रचनाकार" मंथन " "और
पत्र पत्रिकाओं
"हरयाणा जगत" नव भारत टाईम्स, रेपको न्यूज़, राउंड द वीक दिल्ली , हमारा मेट्रो  ,सुखनवर , युध्भूमि,  और वाङ्मय त्रेमासिक  हिन्दी पत्रिका में भी प्रकाशित हो चुकी हैं।  
मेरा पहला काव्य संग्रह " विरह के रंग" शिवना प्रकाशन द्वारा May’2010  माह में प्रकाशित  हुआ

शायद आयु का पहला पडाव बचपन ही होता है. बचपन में अगर हम कहें तो सबसे अच्छा दोस्त शिक्षक भी  पर्यावरण  ही होता है.   पर्यावरण  का अभिप्राय है आसपास का प्राक्रतिक  सुन्दर  माहोल, विशाल पेड़ पोधो की हरयाली,  और पतझड़ सावन बसंत बहार जैसे  मौसम जो की जीवन के अनेक संदेशो से ओत प्रोत होता है .  जैसे जैसे बच्चे बड़े होते हैं, उन्हें ये जानना जरूरी हो जाता है की जिस  ग्रह पर हमारा जीवन है, उसके प्रति उनकी क्या जिम्मेवारी  बनती है.  इस ग्रह के  भविष्य    को सुन्दर  और स्वच्छ   बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए बच्चो को जागरूक करना  जरूरी हो गया  है.   आज के युग में जहां पर्यावरण की समस्या बेहद ही गंभीर होती जा रही है, वहां बच्चो के मन में प्रक्रति और  पर्यावरण की सुरक्षा के लिए एक जोश जाग्रत करना आवश्यक है. नीला स्वच्छ गगन, यहाँ वहां उड़ते  रुई के फाहों जैसे बादल के टुकड़े,  निर्मल जल से कल कल करती नदियाँ,  हरी भरी वादियाँ,  पर्वतों की आगोश से बहते झरने, हरे भरे विशाल दरख्तों के साए तले सांस लेती ये विशाल धरा , कौन से सोंदर्य की मोहताज है. प्रक्रति का ये  सौन्दर्य अतुलनीय है .   इसी प्रकति की गोद में खेल कर बचपन बड़ा होता है, प्रक्रति हमारी माँ हैं, और अपनी माँ के प्रति हर एक इन्सान का कर्तव्य बनता है की , अपनी माँ के इस अनोखे स्वरूप  की रक्षा करें. 
बचपन में ही बच्चो को शिक्षा के दौरान तस्वीरों द्वारा प्रकति की संचरना और उसके बहुमूल्य साधनों की रक्षा करना सिखाया  जाना चाहिए.  पर्यावरण सिर्फ किताबी न हो होकर हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण अंश होना चाहिए .    बच्चो को बारिश में नहाना और कागज की कश्ती बनाकर चलाना बहुत ही पसंद होता है, यदि उनके जेहन में ये डाला जाये की बारिश तभी होती है जब नये   पेड़ पोधे लगाये जाए और उनकी सुरक्षा की जाए, कचरा नदी नालो में ना बहाया जाये, बहुत ज्यादा शोर से बचा जाये तो  बच्चे अपने कोमल मन में  पर्यावरण  के महत्व को गहराई से बिठा लेंगे . बचपन में सीखी हुई बाते बच्चे  सारी उम्र   याद रखते हैं और उनका पालन करते हैं.  आज कोई गारंटी नहीं है की जन्म लेने वाला शिशु स्वस्थ ही पैदा होगा. आज चारो तरफ देखा जाए तो जैसे बचपन खो सा गया है, अकेला रह गया है,  न वो बारिश है जिसमे  कोई कागज की  कश्ती चल पाए, न वो पेड़ जहां बच्चे चोरी से चढ़ कर फल तोड़ लायें, ना वो  मखमली घास जहां बेठ] कर वो खेल पायें.  मानव कितना निर्मोही और निर्दय हो रहा है दिन प्रति दिन, अपने बच्चो का बचपन और प्रकति जैसा उसका  सच्चा  दोस्त भी छीन रहा है , सिर्फ अपने विकास और उन्नति की इस अंतहीन अंधी दौड़ में.  जिसका परिणाम बचपन में ही गंभीर बिमारियों से जूझते मासूम चहरो में नज़र आता है.
जिस रफ़्तार से हम विकास की और अग्रसर हो रहे हैं, हम भूल रहे हैं की ये रफ़्तार हमे वीनाश की और ले जा रहा है. पेड़ों  को जिस दरिंदगी से काटा जा रहा है,  कूड़ा कचरा और कारखानों से हानिकारक रसायन को नदियों में बहाया जा रहा है,   और    प्राक्रतिक साधनों का  तेजी से हम उपयोग कर उन्हें नष्ट करते जा रहे हैं, वो दिन दूर नहीं जब हम जीवन की चंद सांसो के लिए भी तरस जायेंगे.
हर मौसम अपनी समय सीमा भूल चूका है, जिस मौसम  का जब मन होता है आ धमकता है. न समय पर धुप, न सर्दी, न बारिश. फसलों की तबाही, किसानो की आत्महत्या , महामारी से जूझते शहर के शहर , आखिर कब हमरी ऑंखें खुलेंगी.
जो नदियाँ कभी अपनी निर्मल धारा के लिए जानी और पूजी जाती थी, अब वही कबाडखाना बन कर रह गयी हैं.   हरियाली और छावं देते ऊँचे   ऊँचे दरख्त अब दिखाई भी नहीं देते,. बेमौसम की बरसात, सुनामी, अधिक गर्मी, भूकंप, बाड़, जगह जगह आग उगलते   विशालकाय ज्वालामुखी  ये सब प्रक्रति के असंतुलन होने के ही नतीजे हैं. जिस तरह पूरी दुनिया में प्रक्रति का रोद्र रूप तबाही मचाने को आतुर हो रहा है, ये मानव के लिए चेतावनी है की , अब समय आ गया  है, ये धरती अब और अन्याय या अत्याचार नहीं सहेगी. इसकी सहनशीलता अब खतम  हो चुकी है.
 हजारो लाखो लोगो की तबाही से भी अगर हम नहीं सावधान होंगे तो कब होंगे, प्रलय कब दबे पावँ आ कर अपना बदला मानव से लेगी, इसका पता भी नहीं चलेगा. पर्यावरण दिवस मना कर   सिर्फ खाना पूर्ति न करें . ग्लोबल वार्मिंग का सिर्फ शोर मचाने से कुछ  नहीं होगा, गंभीर बिमारियों पर करोड़ो बहाने से भी कुछ नहीं होगा, शानो शौकत और दिखावे के लिए प्राक्रतिक साधनों का वीनाश करने से भी कुछ नहीं होगा.   होगा तो सिर्फ तब जब हर मनुष्य के हाथ में फावड़ा होगा, बीज होंगे , एक नन्हा सा पौधा होगा और एक संकल्प की हजारो पेड़ रोज लगायेंगे और उनकी सेवा अपने बच्चो की तरह करेंगे. उन्हें पुरे प्यार से पाल पोस कर बड़ा करेंगे और अपने पर्यावरण  की सुरक्षा आने वाली प्रलय से ऐसे करेंगे जैसे जांबाज सिपाही अपने देश की सीमा की करते हैं.  आने वाला विनाशकारी समय और प्रलय किसी दुश्मन से कम नहीं हैं.  धरती माँ का सीना चीर कर बनाई गयी ये विशाल इमारते, और टैकनोलजी सब कुछ धरा का धरा रह जाएगा. यही नहीं रीसायकल की प्रक्रिया को अपनाकर कचरा इस्तेमाल किया जा सकता है. कूड़ा कचरा या मंदिरों से निकले बासी फूलों को नदियों नालो में बहाने की बजाय धरती में ही दबा दिया जाए.  
 बर्फीली पहाड़ियों से उठ कर , अधखुली आँखों से झांकती भोर की निष्पक्ष किरणों  से  जब कुनमुनाता है  ठहरा  सागर  , नर्म घास की अंगड़ाइयों से महकने लगती है  फिजायें , धीमी गति से चुपचाप फिर ,कहीं हवाएं लेती हैं करवटें, कायनात की आगोश में सिमटा ,पवित्र सौंदर्य का  दिलकश मंजर, धरती के अलसाये   बदन पे, जैसे लिखा रहा हो जीवन बिंदु  की एक नई इबादत .  प्रक्रति का ये मोहक स्वरूप शायद हर कवी की कल्पना में होगा.
बेहद जरूरी है समय रहते, पर्यावरण  को पाठ्यक्रम का एक आवश्यक अंग बनाया जाये, और एक अलग महत्वपूर्ण विषय की तरह पढ़ाया जाये,  बच्चो का बचपन उन्हें लौटाया जाये. उन्हें सिखाया जाये की नन्हे पोधे उन्ही की तरह मासूम  हैं, उनकी रक्षा करना हर बच्चे का फर्ज है. 
प्रक्रति हमारी शालीन सभ्यता का प्रतीक है, पहाड़ी इलाके अपने रमणीक सुन्दर हरे भरे स्थानों के लिए विश्व में जाने जाते हैं.  ये धरती जो हमारे जीवन का सबब है, जो हमे जीवन देती है, उसकी सुरक्षा के लिए हमे वचन बध होना ही पड़ेगा.  ना करें हम अपनी माँ पर इतने अत्याचार की हम दाने दाने को भी मोहताज हो जाएँ.
स्वच्छ निर्मल पर्यावरण ही बचपन का भविष्य तय करता है, निरोगी काया , अच्छे संस्कार , सकारत्मक विचार धारा ये सब  पर्यावरण  ही की देन है. आओ हम सब आज ही यह प्रण करें की हर घर में हम एक पेड़ लगायें उसे पाले पोसें  , और अपनी जीवन दायनी धरती माँ को बचाएं. 

(seema gupta)
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