बचपन और हमारा पर्यावरण--अविनाश वाचस्पति
>> शुक्रवार, 20 मई 2011
अविनाश वाचस्पति : परिचय
14 दिसम्बर 1958 में जन्म। भा रतीय जन संचार संस्थान से 'संचा र परिचय', तथा हिंदी पत्रकारिता पाठ्यक्रम’। दैनिक समाचार-पत्र, पत्रिकाओं, अंतर्जाल पत्रिकाओं इत्यादिमें रचनाएं प्रकाशित। अनेक काव्य संग्रहों में कविताएं शामिल। वर्ष 2008 और वर्ष 2009 में यमुनानगर, हरियाणा में आयोजित हरियाणा अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में फिल्मोत्सव समाचार के तकनीकी संपा दक।
शहर में हैं सभी अंधे (1994), त ेताला काव्य संग्रह (1984) में संपादन/प्रकाशन। नवें दशक के प्रगतिशील कवि कविता संग्रह के प्रमुख हस्ताक्षर। हाल ही में हिन्दी ब्लॉगिंग : अभिव्यक्ति की नई क्रांति पुस्तक का सह-संपादन।
'साहित्यालंकार' , 'साहित्य दीप ' उपाधियों और राष्ट्रीय हिंदी सेवी सहस्त्राब्दी सम्मान' ,हास्य व्यंग्य श्रेणी में संवा द सम्मान, लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान 2010 में वर्ष के श्रेष्ठ व्यंग्यकार । क विता पुस्तक शहर में हैं सभी अंधे पर साहित्य शिल्पी सम्मान। सूचना और प्रसारण मंत्रालय से वर्ष 2008-2009 के लिए हिंदी साहित्य सम्मान ।
हिंदी ब्लॉग नुक्कड़ , पिता जी, बगीची, अविनाश वाचस्पति, झ काझक टाइम्स इत्यादि मिलाकर 30 से अधिक हिन्दी ब्लॉगों प र सक्रिय। सोपानस्टेप मासिक, डीएलए में साप्ताहिक व्यंग्य लेखन लेखन।
संपर्क--: साहित्यकार सदन, पहली मंजिल, 195 सन्त नगर, नई दिल्ली 110065 मोबाइल 09868166586/ 09717849729 ई मेल पता nukkadh@ gmail.com, tetaalaaa@gmail.com
संप्रति -- फिल्म समारोह निदेशालय-----------------------------------------------------------------------------------------------
लेख का विषय बहुत माकूल है और प्रासंगिक भी। पर्यावरण को सुधारने और बिगाड़ने संबंधी मानवीय चिंतायें बेहद चिंतनीय हैं। व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो बचपन के पर्यावरण को सबसे स्वच्छ पाया गया है। आपने वह फिल्मी गीत सुना ही नहीं होगा बल्कि जहन में अब भी गूंज रहा होगा। नन्हा मुन्ना राही हूं, देश का सिपाही हूं, मेरे साथ मिलकर बोलो, जयहिन्द, जयहिन्द, जयहि न्द।
बचपन के पर्यावरण की यह निश्छलता देश काल की सीमाओं से बाहर अपने अक्षितिजीय मनभावन स्वरूप में संपूर्ण सृष्टि में नेह बरसा रही है। बचपन में हम पैंया पैंया चलते रहे हैं और उससे भी पहले घुटनों के बल खिसकते रहे हैं। बिना कहे, बिना सुने अपने विचारों के जरिए अनुभवों की सैर का आनंद लेते रहे हैं। खिसकने से पैदल चलने का यह सफर, पैदल के बाद साईकिल की सवारी, साईकिल के बाद किशोर होने पर मोटर साईकिल और स्कूटर पर उतर चढ़त, फिर कार, बस, सारे चौपहिये वाहन, और फिर इससे आगे बढ़कर रेल, जिसके पहिये गिने तो जा सकते हैं, पर कोई गिनता नहीं है, सिवाय उनके जिन्हें उनका गिन गिनकर हिसाब रखना होता है।
गिनता है बचपन में बच्चा, सिर्फ रेल के पहिये ही नहीं, कितनी चींटियां जमीन पर चल रही हैं, कितने मच्छर उड़ रहे हैं, कितने कुत्ते भौंक रहे हैं, कितनी मक्खियां हैं, उन्हें मारने की कोशिश करता बचपन, बचपन में क्रूरता का समावेश करता चलता है। वो गिनता तो है उन रोटियों को भी जिनसे वो अपने पेट की भूख मिटाता है, भाई बहनों को भी जिनके साथ रहता है, दोस्तों पड़ोसियों को, इन पर प्यार लुटाता है, माता पिता को, हितैषियों को जिनसे असीम प्यार दुलार पाता है। देखता है उस इंसान के बारे में जो मुंह से धुंआ उगलता दिखलाई देता है। धुंआ सिर्फ धूम्रपान का ही नहीं, अपशब्दों की बारिश भी, जिनसे रोजाना रूबरू होता है। वहीं से सही-गलत सब सीखता बढ़ता रहता है। जबकि वो घट रहा होता है। दिन, शरीर के स्तर पर और वैचारिक स्तर पर बढ़ रहा होता है। अनुभवों के मायने में समृद्धत्व को प्राप्त हो रहा होता है। पर इस गिनती में कोई स्वार्थ नहीं होता। स्वार्थ से बचा रहे ऐसा नहीं होता।
यह अच्छा है तो मेरा है, मेरे भाई का है, मेरी बहन का है, मेरे मित्र का है, मेरे पिता का है, माता का है और जो बुरा है वो तेरा है, किसी अनजाने का है। जबकि अनजाना कौन है, सबमें मानवमन समाया है। बचपन में मच्छरों, चींटियों, मक्खियों को मारने से उपजी क्रूरता बचपन को मार देती है। थोड़ा और बढ़े होने पर सांप, बिच्छू को मारना। जबकि वही जब किसी कुत्ते के पिल्ले को, बिल्ली को, गिलहरी को दुलार करती है तो बचपन का आनंद कई सौ गुना बढ़ जाता है। इनके अच्छे प्रभाव से हम इंसानियत के पर्यावरण को सब सुधरता हुआ देखते हैं।
जमीन पर दौड़ने में फास्ट मेट्रो, उसके बाद हवाई जहाज की रनवै पर तेज दौड़, भला उससे कौन करेगा होड़ – पर उससे भी होड़ जारी है – सबसे तेज विचारों की सवारी है। इन विचारों का पर्यावरण स्वच्छ है, तो प्रत्येक मन गंगा है, मन कठौती है और विचार गंगा है। किसी का मन नहीं बुराईयों से रंगा है। बचपन स्नेह का अपनाबन। बनना, बनना और मन का सबसे बंधते जाना।
अब इस पर्यावरण पर भी खूब खतरा तारी हो रहा है। बचपन वो बचपन नहीं रहा, जो देश को, संसार को अपने बचपने से लुभाये। अब बचपना आधुनिकता के मकड़जाल में उलझ गया है और इस बुरी तरह से उलझ गया है कि सुलझाये नहीं सुलझ रहा है। फास्टता इतनी अधिक और इतनी तेजी से समाती जा रही है बल्कि बरगलाती जा रही है कि फूड बन रहा है फास्टफूड, भाषा बन रही है फास्टभाषा (एस एम एस और चैनलों की भाषा पर गौर कीजिए और यही बन रही है अखबारों में खबरों की भाषा), फास्टमेट्रो, फास्टजहा ज (चाहे युद्धक सही, पर युद्ध बुराईयों से तो है सही परंतु युद्ध नहीं सही, जो बचपन के विरुद्ध लड़ा जा रहा है) , फास्टमोबाइल, जो सभ्यता और संस्कृति को बच्चों से दूर ले जा रहा है, इन्हें भटका रहा है और ये बचपन मटक रहा है, अच्छाईयों को गटक रहा है। इसमें न अटकें, इससे बचें और बाहर निकलें, तभी बचपन का पर्यावरण सुरक्षित रहेगा, चाहते सब हैं परंतु बचपन में इस भंवर में फंसने के बाद, बड़े होने पर समझते हैं, अहसासते हैं पर समय से क्या करें, आप ही ढूंढ़ कर बतलायें कोई कारगर उपाय।
पर एक फास्टता सबको लुभा रही है और उसके जरिए हमारी सबकी प्यारी हिन्दी समूचे संसार में अपना सिक्का जमा रही है। सिक्का जो सोने का नहीं है, डायमंड का नहीं है और न ही है चांदी का। वह सिक्का है इंटरनेट पर हमारी हिन्दी की भूमंडलीय सार्थक उपस्थिति। हिन्दी जिसने हिन्दी फिल्मी गीतों के जरिए पूरे विश्व में हिन्दी के पर्यावरण को महकाया, उसे और फास्टता के साथ इंटरनेटीय तीव्रता से सुगंधित कर रही है। पूरे विश्व को हिन्दीहोम बना रही है। आप जान लीजिए कि पूरे समूचे विश्व को हिन्दीहोम सिर्फ हिन्दी के द्वारा ही बनाया जा सकता है, हिन्दी प्रेमी ही बना सकता है और समूचा जगत हिन्दी प्रेमी बनता जा रहा है।
13 टिप्पणियाँ:
धन्यवाद जी....
मान गए आपको अविनाशजी.... फेसबुक पर अनूठा अन्दाज़..मना करने पर तो पढ़ना ही था :)...पहुँचे नुक्कड़ पर.... वहाँ से यहाँ ... अब इतना पढ़ लिया ...सफ़र तय किया तो टिप्पणी करके बताना ज़रूरी लगा... हमेशा की तरह यह अन्दाज़ भी भा गया...
बढ़िया लिखा जी
सत्य वचन है आपका !!
बढ़िया लिखा है,पर्यावरण का तारतम्य अपनी स्निगधता में बना रहे, यही मेरी कामना है।
बच्चों से उनका बचपन हम ही तो छीन रहें हैं .रिएल्टी शो में बचपन को पैदा होते ही झोंक रहें हैं .खानपानी रहनी सहनी की शुरुआत घर से ही होती है .घर ठीक तो बच्चे ठीक .
पर्यावरण देश का , दुनिया का , समाज का और इंसान का बना रहे स्वच्छ, निर्मल !
सार्थक आलेख...
बढ़िया
आपको हरियाली अमावस्या की ढेर सारी बधाइयाँ एवं शुभकामनाएं .
सार्थक आलेख...
सार्थक और प्रभावित करता लेख|
आशा
बहुत अच्छा लेख ....
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