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तो क्या अब हम बच्चे भी ज़हरीले पैदा करेंगे?--संजीव कुमार शर्मा (पर्यावरण लेख)

>> शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

परिचय--संजीव कुमार शर्मा  -- मध्यप्रदेश की संस्कारधानी के नाम से मशहूर जबलपुर स्थित राबर्टसन कालेज(अब माडल साइंस कालेज) से वनस्पति विज्ञान में स्नातकोत्तर.लिखने-पढ़ने के शौक ने भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविधालय के सर्वप्रथम बैच का छात्र बना दिया.फिर यही से मीडिया पर स्नातक और स्नातकोत्तर. मीडिया की दुनिया में बीते दो दशकों से सक्रिय. मध्यप्रदेश के लोकप्रिय दैनिक समाचार पत्रों मसलन देशबंधु, नवभारत और न्यूज़ एजेन्सी एक्सप्रेस मीडिया सर्विस जैसे तमाम संस्थानों में मीडिया मजदूरी करने के साथ-साथ पत्रकारिता के नव आगंतुकों से कुछ सीखने और सिखाने के लिए माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविधालय में अध्यापन में भी हाथ आजमाया.अब मीडिया के साथ जुड़कर गुजर-बसर की ज़द्दोज़हद

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वातावरण में ज़हर,फल ज़हरीले,सब्ज़ियों में ज़हर,दूध-दही से लेकर खोया-पनीर तक में मिलावट,शोरगुल से उपजा ध्वनि प्रदूषण और पानी में घुले खतरनाक रसायन!ये तो हुई भौतिक वस्तुओं की बात. वैचारिक तौर पर भी समाज और देश का माहौल कम ज़हरीला नहीं है यानि सब-कुछ ज़हरीला. तो फिर यह सवाल दिमाग में उठता है कि क्या हम बच्चे भी ज़हरीले पैदा करेंगे? यदि भविष्य की पीढियां इसतरह के ज़हर बुझे वातावरण में आँखें खोलेगी तो देश का भविष्य क्या होगा?तब देश की फ़िज़ा क्या होगी?क्या देश को साम्प्रदायिकता और मिलावट के प्रदूषण से मुक्ति दिलाने के लिए बच्चों को स्वतन्त्रता संग्राम की तरह हथियार उठाने पड़ेंगे?
       दरअसल “बच्चे और पर्यावरण” विषय पर विचार करते समय हमें इन सभी तथ्यों को भी ध्यान में रखना होगा.यदि हम सिलसिलेवार ढंग से बात करें तो कई यक्ष प्रश्न हमारे सामने आ खड़े होते हैं. मसलन हम अपने बच्चों और इस देश के भविष्य को कैसे माहौल में एवं कैसी परवरिश दे रहे हैं. फलों और सब्ज़ियों में आक्सीटोसिन का इंजेक्शन लगाना अब आम बात हो गयी है,अदरक को चमकाने के लिए तेज़ाब तक का इस्तेमाल हो रहा है तो दूध-दही के निर्माण में यूरिया जैसे जानलेवा रसायनों का,फलों को ताज़ा बनाने के लिए मोम से लेकर पता नहीं क्या-क्या रगड़ा जा रहा है,कृत्रिम रंगों के ज़रिये फल-सब्ज़ियों को तरो-ताज़ा बनाया जा रहा है,मिठाइयों में चांदी के वर्क के स्थान पर खतरनाक रसायन बेझिझक इस्तेमाल हो रहे हैं,देशी घी में आलू और चर्बी की मिलावट सामान्य बात हो गयी है....तो क्या मुनाफे के लिए हम अपने बच्चों को भी नहीं बख्श रहे?
     ये तो घर के अंदर की बातें थी पर घर के बाहर तो और भी बुरे हाल हैं. सड़कों पर पेट्रोल-डीज़ल के नाम पर देश की बेशकीमती मुद्रा को धुएँ में उड़ाते अंतहीन वाहनों की श्रृंखला,कानफोडू आवाज़ के साथ रोज़ाना सड़कों से बेशर्मी के साथ बलात्कार करते लाखों छोटे-बड़े वाहन-जो शायद ध्वनि और वातावरण को प्रदूषित करने के लिए ही बने हैं और वे इस काम में कोई कसर भी नहीं छोड़ रहे. इसका शिकार हमारे-आपके बच्चे ही बन रहे हैं? शायद इसलिए बच्चे समय से पहले बीमार,मोटे,थके-थके,और कमज़ोर हो रहे हैं.अवसाद और तनाव के कारण वे पढ़ाई-लिखाई से मुंह मोड़कर टीवी और इन्टरनेट की दुनिया में सुकून तलाश रहे हैं.कई बार स्थिति हाथ से निकाल जाने पर वे नशीले पदार्थों के इस्तेमाल में भी पीछे नहीं रहते.
     खाने-पीने और वातावरणीय प्रदूषण से यदि हम किसी तरह अपने बच्चों को बचा भी ले तो सामाजिक प्रदूषण उन्हें लपकने के लिए तत्पर है.जाति/धर्म/संप्रदाय/ऊँच-नीच/छोटे-बड़े/भ्रष्टाचार और कुत्सित विचारों पर केंद्रित राजनीतिक व्यवस्था उन्हें(बच्चों को) को खुलकर अपनी सोच विकसित करने का मौका ही नहीं देती और वे अनजाने में ही वैचारिक प्रदूषण का शिकार बनते जाते हैं.विचारों की यह मिलावट उनमें संक्रीर्णता ला देती है और फिर वे तांगे के घोड़े की तरह आस-पास न देखते हुए केवल उस दिशा में देखने लगते हैं जहाँ कि समाज के कर्ता-धर्ता उन्हें दिखाना चाहते हैं. इसतरह खुले और प्रदूषण-विहीन दिमाग की नई पीढ़ी की बजाय हम वैचारिक रूप से पथ भ्रष्ट बच्चे बनाने का माहौल बना रहे हैं? रही सही कसर छोटे परदे(टीवी) के “ओछे किरदार” पूरी कर देते हैं. जहाँ उन्हें  राखी सावंत के फूहड़पन को “हार्ड न्यूज़” बनाकर पेश करने वाले न्यूज़ चैनलों और परिवार/समाज/वैवाहिक संस्था और रिश्तों को तोड़ने में जुटे एकता कपूर मार्का धारावाहिकों के ज़रिये भविष्य की शिक्षा मिल रही है.अब बच्चे जाएँ तो जाएँ कहाँ या करें तो क्या करें?....क्योंकि उनके खाने-पीने,विचारों,वातावरण सभी जगह हमारी लालसाओं और दमित कामनाओं ने ज़हर घोल दिया है.ऐसे में यदि नई पीढ़ी ज़हरीली पैदा हो रही है तो इसमें उनका क्या कसूर?

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4 टिप्पणियाँ:

हिन्‍दी ब्‍लॉगर 1 अप्रैल 2011 को 9:38 am बजे  

उनका यही कसूर है संजीव भाई कि वे इस पर्यावरण में पैदा क्‍यों हो हैं, उन्‍हीं की वजह से हम सब एक दो एक करोड़ हो गए हैं।

संजीव शर्मा/Sanjeev Sharma 17 अप्रैल 2011 को 11:33 am बजे  

आलेख प्रकाशन के लिए आभार....बस एक त्रुटि रह गयी है वह यह की मेरा नाम "संजीव कुमार शर्मा " के स्थान पर "संजय कुमार शर्मा " दिया गया है.

हिन्‍दी ब्‍लॉगर 17 अप्रैल 2011 को 10:04 pm बजे  

य‍ह भी तो हो सकता है कि संजय कुमार शर्मा की जगह आपका चित्र लग गया हो।

हमारा पर्यावरण 17 अप्रैल 2011 को 10:38 pm बजे  

संजीव जी, नाम सुधार दिया गया है।
सूचना देने के लिए आपको धन्यवाद।
आभार

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