बचपन और हमारा पर्यावरण---दर्शन बवेजा
>> रविवार, 17 अप्रैल 2011
परिचय
नाम : दर्शन लाल बवेजा
जन्म तिथी : २२ मई १९७०
निवास : यमुना नगर
प्रांत : हरियाणा
पेशा : विज्ञान अध्यापक,विज्ञान संचारक,पर्यावरण प्रेमी
स्कूल का नाम: राजकीय वरिष्ट माध्यमिक विद्यालय अलाहर,यमुना नगर
शैक्षिक योग्यता : बी.एस.सी.,बी ऐड.,ऍम ए (अर्थशास्त्र,राजनीती विज्ञान)
ब्लॉग जगत में लेखन :मार्च २०१० से
ब्लोग्स के नाम : विज्ञान गतीविधीयाँ , क्यों और कैसे विज्ञान में ,इमली इको क्लब
रुचियाँ : कम संसाधन वाले स्कूलों मे कम लागत से विज्ञान संचार ,विज्ञान मोडल्स बनाना और विज्ञान संचार ,कम लागत से तैयार होने वाले विज्ञान शिक्षण सहायक सामग्री विकसित करना |
हिंदी में ही विज्ञानं ब्लॉग लेखन क्यों ? : हिंदी में ही तो विज्ञान संचार की अत्यधिक आवश्यकता है क्यूँकी जब ४-५ सालों के बाद गाव के हर बच्चे हाथ में इंटरनेट होगा तो वो ये नहीं कह सकते की किसी ने हिंदी में विज्ञान में कुछ काम नहीं किया है सभी शिक्षक अपनी जिम्मेदारी को समझें विज्ञान एवँ पर्यावरण के प्रति विद्याथियों को शिक्षित करें। जिससे उनमें पर्यावरण की रक्षा करने की जागरुकता आए। यह कार्य अत्यावश्यक इसलिए है कि विद्यार्थी के कोमल मन मस्तिष्क पर बचपन में प्राप्त ज्ञान की अमिट छाप रह्ती है और वह इसे जीवन भर नहीं भूलता। इसलिए अंधविश्वाश निवारण एवं पर्यावरण संरक्षण में शिक्षक की महत्वपूर्ण भूमिका है, इससे इंकार नही किया जा सकता।
विशेष : वास्तव मे काम किया जाए रिपोर्टिंग झूठी भी हो सकती है और बनायी भी जा सकती है,मुझे छोटे छोटे बच्चों के साथ विज्ञान और पर्यावरण गतिविधियाँ करने मे और उन को विज्ञान और पर्यावरण गतिविधियाँ करनेमे मस्त होते देख कर अपने विज्ञान अध्यापक होने पर बहुत खुशी होती है.
बचपन जीवन का वो भाग जिस के लिए आदमी तब भी तरसता है जब वो बड़ा होता है जगजीत सिंह की वो गजल 'कागज की कशती' सुन कर बचपन की याद किस को ना आयी होगी| एक बचपन हमारा था अब हमारे अपने बच्चों का है और एक बचपन है 'कचरा बीनने वाले बच्चों का' जी एक सच जिस से नजरे नहीं फेरी जा सकती| सुबह तड़क वेला में कंधे पर कट्टा/बोरी लटकाए मैले गंदे बिना नहाये ये बच्चे दुकाने खुलने से पहले बाज़ारों में कालोनियों में स्कूलों के पास पहुँच जाते है और कागज ,गत्ता ,पोलीथीन ,प्लास्टिक आदि फेंका हुआ कचरा उठाने लगते है उन को कोई सरोकार नहीं है कि उसने बहुत बड़ी कम्पनी के बच्चों के कपड़ो का जो डिब्बा/पोलीथीन उठाया,अपने बोरे में डाला और फिर अगले शिकार(डिब्बे) की और भागा उस के पास वक्त नहीं है की वो ये जाने ५० पैसे में बिकने वाले इस डिब्बे में उस के ही हमउम्र का ३००० रुपयों का कोट था| उसे इस काम में यानि कचरा बीनने में भी कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है वो भाग भाग कर चीते की फुर्ती से आपने शिकार को पकड़ता है डिब्बा ,कागज ,अखबार ,पोलीथीन ,लोहा ,टीन गलनशील/अगलनशील कचरा और उस के बदले दिन को रोटी .. बचपन उनका और पर्यावरण हमारा जी हाँ ,मै कचरा बीनने वालों को सच्चा पर्यावरण हितैषी मानता हूँ वो छोटे छोटे बच्चों के झुण्ड दूर से ही अपने डिब्बे को भूखे बाज़ की तरह पहचान लेते है और दूर से ही बोल देते है वो मेरा,बड़े वे के प्रतिस्पर्धात्मक तिडकमों से अनजान इन के पेशे में बचपन की निश्छल,पाक,सहयोगात्मक भावना होती है यानी शिकार जिस को पहले दिखा वो ईमानदारी से हुआ उसका .. यहाँ कोई व्यवसायियों के घरानों जैसी जंग नहीं है बस अपना बचपन अप्रत्यश रूप से पर्यावरण को समर्पित करते ये बच्चे दुखी है तो बस गली बाजारों के कुत्तों,पालतू कुत्तों से जो इन से प्रतिस्पर्धा रखते है| कुत्ते सब के जीवन में होते है जो दैहिक,मानसिक और भावनात्मक शोषण करते है| ठोस कचरा व्यवसाय के प्रबंधन डीग्री धारक बिना स्कूल गए पर स्कूल के बाहर रोज जाने वाले ये गार्बेज पिकरस् गजब के ठोस कचरा प्रबंधक होते है किसी शहर में इन की संख्या हज़ारों में हो सकती है ये 'सब के लिए अनिवार्य शिक्षा क़ानून' के वो नमूने है जो करोड़ों के घोटालों वाले नेताओं के मुहं पर तमाचा होते है| इन की ठोस कचरा उठाने कुशलता,छटाई करने का कौशल,कबाडी से हिसाब करने की निपुणता और शाम को घर का चुल्हा जलाने में परिवार की सहायता कबीले तारीफ हती है | इनका बचपन पर्यावरण संरक्षण की भेंट चड जाता है| दोषी कौन? यहाँ दोष देखने और दिखाने का सवाल नहीं है बस अपने बचपन को पर्यावरण पर न्योछवर करते ये बच्चे सच्ची पर्यावरण सेवा कर रहे है अप्रत्यक्ष रूप से ही सही,इनको पता भी नहीं,इनको क्या और भी बहुत से लोगों को नहीं पता की ये पर्यावरण संरक्षण के वो गिद्ध है जो अपनी भूख भी मिटाते है और एक दिन खुद भी मिट जाते है | पर्यावरण के इन महान संरक्षकों को जो वास्तविक बचपन जी रहे है को मेरा नम नमन
नाम : दर्शन लाल बवेजा
जन्म तिथी : २२ मई १९७०
निवास : यमुना नगर
प्रांत : हरियाणा
पेशा : विज्ञान अध्यापक,विज्ञान संचारक,पर्यावरण प्रेमी
स्कूल का नाम: राजकीय वरिष्ट माध्यमिक विद्यालय अलाहर,यमुना नगर
शैक्षिक योग्यता : बी.एस.सी.,बी ऐड.,ऍम ए (अर्थशास्त्र,राजनीती विज्ञान)
ब्लॉग जगत में लेखन :मार्च २०१० से
ब्लोग्स के नाम : विज्ञान गतीविधीयाँ , क्यों और कैसे विज्ञान में ,इमली इको क्लब
रुचियाँ : कम संसाधन वाले स्कूलों मे कम लागत से विज्ञान संचार ,विज्ञान मोडल्स बनाना और विज्ञान संचार ,कम लागत से तैयार होने वाले विज्ञान शिक्षण सहायक सामग्री विकसित करना |
हिंदी में ही विज्ञानं ब्लॉग लेखन क्यों ? : हिंदी में ही तो विज्ञान संचार की अत्यधिक आवश्यकता है क्यूँकी जब ४-५ सालों के बाद गाव के हर बच्चे हाथ में इंटरनेट होगा तो वो ये नहीं कह सकते की किसी ने हिंदी में विज्ञान में कुछ काम नहीं किया है सभी शिक्षक अपनी जिम्मेदारी को समझें विज्ञान एवँ पर्यावरण के प्रति विद्याथियों को शिक्षित करें। जिससे उनमें पर्यावरण की रक्षा करने की जागरुकता आए। यह कार्य अत्यावश्यक इसलिए है कि विद्यार्थी के कोमल मन मस्तिष्क पर बचपन में प्राप्त ज्ञान की अमिट छाप रह्ती है और वह इसे जीवन भर नहीं भूलता। इसलिए अंधविश्वाश निवारण एवं पर्यावरण संरक्षण में शिक्षक की महत्वपूर्ण भूमिका है, इससे इंकार नही किया जा सकता।
विशेष : वास्तव मे काम किया जाए रिपोर्टिंग झूठी भी हो सकती है और बनायी भी जा सकती है,मुझे छोटे छोटे बच्चों के साथ विज्ञान और पर्यावरण गतिविधियाँ करने मे और उन को विज्ञान और पर्यावरण गतिविधियाँ करनेमे मस्त होते देख कर अपने विज्ञान अध्यापक होने पर बहुत खुशी होती है.
बचपन जीवन का वो भाग जिस के लिए आदमी तब भी तरसता है जब वो बड़ा होता है जगजीत सिंह की वो गजल 'कागज की कशती' सुन कर बचपन की याद किस को ना आयी होगी| एक बचपन हमारा था अब हमारे अपने बच्चों का है और एक बचपन है 'कचरा बीनने वाले बच्चों का' जी एक सच जिस से नजरे नहीं फेरी जा सकती| सुबह तड़क वेला में कंधे पर कट्टा/बोरी लटकाए मैले गंदे बिना नहाये ये बच्चे दुकाने खुलने से पहले बाज़ारों में कालोनियों में स्कूलों के पास पहुँच जाते है और कागज ,गत्ता ,पोलीथीन ,प्लास्टिक आदि फेंका हुआ कचरा उठाने लगते है उन को कोई सरोकार नहीं है कि उसने बहुत बड़ी कम्पनी के बच्चों के कपड़ो का जो डिब्बा/पोलीथीन उठाया,अपने बोरे में डाला और फिर अगले शिकार(डिब्बे) की और भागा उस के पास वक्त नहीं है की वो ये जाने ५० पैसे में बिकने वाले इस डिब्बे में उस के ही हमउम्र का ३००० रुपयों का कोट था| उसे इस काम में यानि कचरा बीनने में भी कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है वो भाग भाग कर चीते की फुर्ती से आपने शिकार को पकड़ता है डिब्बा ,कागज ,अखबार ,पोलीथीन ,लोहा ,टीन गलनशील/अगलनशील कचरा और उस के बदले दिन को रोटी .. बचपन उनका और पर्यावरण हमारा जी हाँ ,मै कचरा बीनने वालों को सच्चा पर्यावरण हितैषी मानता हूँ वो छोटे छोटे बच्चों के झुण्ड दूर से ही अपने डिब्बे को भूखे बाज़ की तरह पहचान लेते है और दूर से ही बोल देते है वो मेरा,बड़े वे के प्रतिस्पर्धात्मक तिडकमों से अनजान इन के पेशे में बचपन की निश्छल,पाक,सहयोगात्मक भावना होती है यानी शिकार जिस को पहले दिखा वो ईमानदारी से हुआ उसका .. यहाँ कोई व्यवसायियों के घरानों जैसी जंग नहीं है बस अपना बचपन अप्रत्यश रूप से पर्यावरण को समर्पित करते ये बच्चे दुखी है तो बस गली बाजारों के कुत्तों,पालतू कुत्तों से जो इन से प्रतिस्पर्धा रखते है| कुत्ते सब के जीवन में होते है जो दैहिक,मानसिक और भावनात्मक शोषण करते है| ठोस कचरा व्यवसाय के प्रबंधन डीग्री धारक बिना स्कूल गए पर स्कूल के बाहर रोज जाने वाले ये गार्बेज पिकरस् गजब के ठोस कचरा प्रबंधक होते है किसी शहर में इन की संख्या हज़ारों में हो सकती है ये 'सब के लिए अनिवार्य शिक्षा क़ानून' के वो नमूने है जो करोड़ों के घोटालों वाले नेताओं के मुहं पर तमाचा होते है| इन की ठोस कचरा उठाने कुशलता,छटाई करने का कौशल,कबाडी से हिसाब करने की निपुणता और शाम को घर का चुल्हा जलाने में परिवार की सहायता कबीले तारीफ हती है | इनका बचपन पर्यावरण संरक्षण की भेंट चड जाता है| दोषी कौन? यहाँ दोष देखने और दिखाने का सवाल नहीं है बस अपने बचपन को पर्यावरण पर न्योछवर करते ये बच्चे सच्ची पर्यावरण सेवा कर रहे है अप्रत्यक्ष रूप से ही सही,इनको पता भी नहीं,इनको क्या और भी बहुत से लोगों को नहीं पता की ये पर्यावरण संरक्षण के वो गिद्ध है जो अपनी भूख भी मिटाते है और एक दिन खुद भी मिट जाते है | पर्यावरण के इन महान संरक्षकों को जो वास्तविक बचपन जी रहे है को मेरा नम नमन
3 टिप्पणियाँ:
धन्यवाद जी....
दर्शन अच्छा है।
A well written article on a sensitive issue.
Arvind K. Pandey
http://indowaves.wordpress.com/
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