बचपन और हमारा पर्यावरण -- जयदीप शेखर
>> गुरुवार, 7 अप्रैल 2011
नाम- जयदीप दास. कलमी नाम- जयदीप शेखर.
भूतपूर्व वायुसैनिक, वर्तमान में भारतीय स्टेट बैंक में सहायक.
मेरे ब्लॉग- नाज़-ए-हिन्द सुभाष, कभी-कभार, विन्दुधाम बरहरवा, खुशहाल भारत, कारवाँ और आमि यायावर.
पिता का नाम- डॉ. जे.सी. दास
स्थायी निवास- विन्दुधाम पथ, बरहरवा- 816101, जिला- साहेबगंज, झारखण्ड.
वर्तमान पता- भा.स्टेट बैंक, कृषि बाजार प्राँगण शाखा (6427), अररिया कोर्ट- 854311 (बिहार)
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बचपन और हमारा पर्यावरण
विषय प्रवेश
थोड़ी देर के लिए हम अपने-आप को ब्रह्माण्ड के बाहर रखकर देखते हैं। क्या पाते हैं- अरबों-खरबों प्रकाश वर्ष दूर तक विभिन्न आकार-प्रकार के आकाशीय पिण्ड फैले हुए हैं और विभिन्न कांतियों में चमक रहे हैं। मगर इनमें से किसी पर भी 'जीवन' नहीं है। 'जीवन' की लौ अगर कहीं है, तो वह है- ब्रह्माण्ड के एक कोने में स्थित नीहारिका 'आकाशगंगा' के एक छोटे-से सौर-मण्डल के एक नन्हे-से नीले रंग के ग्रह पर, जिसका नाम है- पृथ्वी! ओह, इतना विशाल ब्रह्माण्ड और मात्र एक छोटे-से ग्रह पर जीवन! अगर यहाँ भी 'जीवन' नष्ट हो गया तो? सोचकर ही सिहरन पैदा होती है। अर्थात् यहाँ 'जीवन' को बचाये रखना जरूरी है। इसके लिए क्या करना होगा? पृथ्वी के 'पर्यावरण' को कायम रखना होगा, क्योंकि इसके खास 'पर्यावरण' के कारण ही यहाँ जीवन कायम है। इस पर्यावरण को कौन बचायेगा? बेशक, इस ग्रह पर रहने वाला प्रकृति का सबसे बुद्धिमान जीव- मनुष्य!
क्या वाकई 'जीवन' को खतरा है?
जी हाँ, वाकई पृथ्वी पर 'जीवन' को खतरा है। हमारी आने वाली नस्लों के बच्चों के लिए साँस लेना भी दूभर होने वाला है। पृथ्वी की हवा, इसकी मिट्टी, इसका पानी, यहाँ तक कि इसका 'अन्तरिक्ष' भी प्रदूषित हो चुका है। 'ओजोन' रक्षा-कवच में छेद हो रहे हैं। ध्रुवों पर जमी बर्फ पिघल रही है। या तो सूर्य की पराबैंगनी किरणें सबकुछ जलाकर खाक कर देंगी, या फिर, सबकुछ जलमग्न हो जायेगा।
क्या है कारण
धरती पर बढ़ती जनसंख्या तथा 'उपभोगवादी' जीवन शैली इसके कारण हैं। इन दोनों बातों के चलते जंगल उजाड़े जा रहे हैं; खेतों में, हवा में और नदियों में जहर घोले जा रहे हैं, और 'ई-कचरों' तथा परमाण्विक कचरों का जखीरा बढ़ाया जा रहा है। हमारी स्थिति उन चिड़ियों-जैसी हो गयी है, जो रटती थीं- 'शिकारी आयेगा, जाल बिछायेगा, दाना डालेगा, लोभ से उसमें फँसना मत'- और जाल में फँसती जाती थीं। यानि, हम और हमारी सरकारें अच्छी तरह जानती हैं कि पर्यावरण को नुक्सान पहुँचाकर हम न केवल आनेवाली पीढ़ियों का जीना मुश्किल कर रहे हैं, बल्कि धरती पर 'जीवन' को ही खतरा पहुँचा रहे हैं; फिर भी हम पर्यावरण को नुक्सान पहुँचाने के नये-नये तरीके ईजाद करते जा रहे हैं।
क्या हैं उपाय
आँकड़ों और तकनीकी जानकारियों की गहराई में न जाकर हम सीधे इस पर विचार करते हैं कि वे कौन-से उपाय हैं, जिनपर अमल करके हम अपने पर्यावरण को 'प्राकृतिक' बना सकते हैं। वे उपाय हो सकते हैं-
1. जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण। जिन भौगोलिक क्षेत्रों तथा सामाजिक तबकों में जनसंख्या वृद्धि की दर ज्यादा है, उनकी युवा महिलाओं के लिए खास नौकरियाँ तैयार की जायं और उन्हें इनमें इस शर्त के साथ शामिल किया जाय कि वे अट्ठाईस वर्ष की उम्र के बाद ही माँ बनेंगी। इसी प्रकार, अट्ठाईस वर्ष की उम्र के बाद ही माँ बनने वाली सभी महिलाओं को नकद पुरस्कार भी दिया जाय।
2. उपभोगवादी संस्कृति पर रोक। जीवन-शैली को शान्त-चित्त तथा 'उपयोग'-वादी बनाया जाय। छह घण्टों से अधिक किसी को भी काम करने की अनुमति न हो। समय कम जान पड़े, तो दो या तीन शिफ्टों में काम किया जाय। इसके लिए वेतन-भत्तों में कमी लाते हुए ज्यादा-से-ज्यादा लोगों को रोजगार दिया जाय। दूसरी तरफ, लोगों को सामाजिक-सांस्कृतिक-साहसिक कार्यों/अभियानों में भाग लेने के प्रेरित किया जाय। इसके लिए 'बुद्धू बक्से' का प्रसारण दिन में सिर्फ पाँच घण्टों के लिए सीमित करना पड़े, तो वह भी किया जाय।
3. 'मकड़जाल साइकिल ट्रैकों' का निर्माण। जो शहर प्रदूषित घोषित किये जा चुके हैं, वहाँ मोटर गाड़ियों का पंजीकरण एवं स्थानान्तरण बन्द कर दिया जाय और इसके बदले में 'फ्लाय ओवर' साइकिल ट्रैकों का निर्माण किया जाय। इन साइकिल ट्रैकों की संरचना मकड़ी के जाले पर आधारित होगी और यहाँ सभी प्रकार की साइकिलें पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहेंगी। इस ट्रैक के उपयोग के लिए मामूली दर पर टिकट लगायी जाय और एक टिकट दिन भर के लिए वैध हो।
4. जैविक खाद तथा कीट नियंत्रण प्रणाली। रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का उत्पादन एवं उपयोग तत्काल प्रभाव से रोक दिया जाय और इसके स्थान पर जैविक खादों तथा 'कीट नियंत्रण प्रणालियों' का तेजी से विकास किया जाय।
5. बेकार/बंजर जमीन में खेती। खेती का रकबा बढ़ाने के लिए जंगलों को काटने की जरूरत नहीं है। सरकारी विभागों के पास हजारों एकड़ जमीन बेकार पड़ी रहती है। इन जमीनों पर- यहाँ तक कि हवाई अड्डों की खाली जमीन पर भी- जरूरी एहतियात के साथ खेती या बागवानी करवायी जा सकती है। जब हम कहते हैं कि विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है, तो क्या बंजर जमीनों को भी खेती योग्य नहीं बनाया जा सकता?
6. हरित पट्टियाँ। हर गाँव, कस्बे, नगर, महानगर के चारों तरफ विभिन्न चौड़ाईयों वाली हरित पट्टियों का निर्माण किया जाय। इनमें स्थानीय किस्म के फल-फूल-छायादार पेड़ लगाये जायं।
7. 'जंगल कॉरिडोर'। बड़े जंगलों को 'जंगल कॉरिडोरों' से आपस में जोड़ दिया जाय। इन कॉरिडोरों से होकर गुजरने वाली सड़कों को 'फ्लाय ओवर' तथा रेल ट्रैक को भूमिगत रुप दिया जाय।
8. छोटे बिजलीघर। एक गहरा कुआँ (जो नहर द्वारा निकटतम नदी से भी जुड़ा हो), एक ऊँचा जलमिनार, एक कृत्रिम 'जलप्रपात', एक टर्बाईन तथा एक पावर हाऊस के सहारे एक, आधा या चौथाई मेगावाट पनबिजली पैदा करना कोई बड़ी बात नहीं है। यहाँ तक कि दो 'स्प्रिंगों' की मदद से एक भारी एवं विशाल पेण्डुलम को 'सदा गतिशील' बनाकर भी उसकी 'गतिज' ऊर्जा को 'विद्युत' ऊर्जा में बदला जा सकता है; या फिर, सीधे उस 'गतिज' ऊर्जा से मिलों/फैक्ट्रियों की गरारियों को घुमाया जा सकता है। इस प्रकार के छोटे-छोटे बिजलीघरों का जाल बिछा दिया जाय। इसके बदले ताप और परमाणु बिजलीघरों को बन्द कर दिया जाय।
9. सौर ऊर्जा। एक तरफ तो सौर ऊर्जा को सस्ता बनाने की कोशिश की जाय, ताकि ज्यादा-से-ज्यादा लोग इसका उपयोग कर सके; दूसरी तरफ, सार्वजनिक स्थलों- जैसे, गली व राजपथ, रेल स्टेशन, बस अड्डा, हवाई अड्डा, इत्यादि- पर कम-से-कम दो तिहाई बल्ब और पंखे सौर ऊर्जा से चालित रखे जायं। अन्यान्य इमारतों/भवनों में भी इस अनुपात को अपनाया जा सकता है।
10. प्रदूषित नदियों का बचाव। जो नदियाँ प्रदूषित हो रही हैं, उनके किनारे-किनारे दो भूमिगत पाईप लाईन बिछाये जायं- एक से होकर कल-कारखानों का कचरा बहेगा तथा दूसरे से नगरों का मल-जल। इस कचरे तथा मल-जल को समुद्र के किनारे स्थापित बड़े परिशोधन संयंत्रों तक लाया जाय और संशोधन के बाद जल को समुद्र में बहा दिया जाय। पाईप लाईन के बीच-बीच में जरूरत के मुताबिक 'पम्पिंग स्टेशनों' की भी व्यवस्था की जाय।
11. नदियों का स्वाभाविक बहाव। नदियों पर बने बाँधों को तोड़ दिया जाय (पायों पर बने 'पुल' कायम रहें); 'गाद' की सफाई कर नदियों की गहराई बढ़ा दी जाय, और इस प्रकार नदियों को उनके स्वाभाविक रुप में बहने दिया जाय। अन्तर्देशीय 'नौ-परिवहन' को- खासकर माल-ढुलाई के लिए- बढ़ावा दिया जाय।
12. ए.सी. का विकल्प। सभी जानते हैं कि 'ओजोन परत' को नुक्सान पहुँचाने में जिन क्लोरो-फ्लोरो-कार्बन गैसों का बड़ा हाथ है, वे एयर-कण्डीशनर से पैदा होती हैं। नगरों-महानगरों में गर्मी बढ़ाने में भी इन्हीं का हाथ होता है। अतः इन्हें हटाकर पुरानी परम्परा को फिर से अपनाया जाय। भवनों के बरामदों, दरवाजों-खिड़कियों पर 'खस' (या इस जैसी किसी और घास) के पर्दे लटकाये जायं और उन्हें भिंगोये रखने के लिए सामान्य 'यांत्रिक' व्यवस्था कर दी जाय।
13. पॉलिथीन का विकल्प। जब तक प्रकृति में 'नष्ट' होने वाली पॉलिथीन का विकास नहीं हो जाता, तब तक के लिए पॉलिथीन के थैलियों पर शत-प्रतिशत प्रतिबन्ध लगा दिया और इसके विकल्प के तौर पर 'स्टॉकिनेट' (बनियान-जैसा जालीदार कपड़ा, जो काफी खिंच सकता है और जो मजबूत भी बहुत होता है) की थैलियों को बाजार में उतारा जाय।
14. नाजुक पर्यावरण वाले क्षेत्र। जिन क्षेत्रों का पर्यावरण नाजुक है, वहाँ 'कंक्रीट' निर्माण तथा मोटर गाड़ियों का प्रवेश रोक दिया जाय। जहाँ तक सैलानियों एवं तीर्थयात्रियों की परेशानी का सवाल है; यह स्पष्ट कर दिया जाय- कि भ्रमण एवं तीर्थ यात्रा सिर्फ उनके लिए है, जो अपनी जरूरत का सामान खुद उठाने और मीलों पैदल चलने में सक्षम हैं- अन्यथा वे भ्रमण या तीर्थ का विचार दिमाग से निकाल दें!
उपसंहार
अगर हम उपर्युक्त चौदह सूत्रों को ईमानदारी और कठोरता पूर्वक लागू कर सकें, तो इसमें कोई शक नहीं है कि हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के बच्चों को न केवल एक स्वस्थ पर्यावरण देकर जा सकते हैं, बल्कि इस अनन्त ब्रह्माण्ड में टिमटिमाती जीवन की इकलौती लौ को भी बचा सकते हैं। हालाँकि इन सूत्रों को लागू तो सरकार करेगी, पर अभियान चलाकर सरकार पर दवाब डालना हम नागरिकों का कर्तव्य है।
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