बचपन और हमारा पर्यावरण--जी.के. अवधिया
>> सोमवार, 11 अप्रैल 2011
परिचय
नामः जी.के. अवधिया
जन्म तिथिः 20-07-1950
जन्म स्थानः रायपुर
शिक्षाः बी.एससी
अपने बारे मेंः मैं एक संवेदनशील, सादे विचार वाला, सरल, सेवानिवृत व्यक्ति हूँ। मुझे अपनी मातृभाषा हिंदी पर गर्व है। आप सभी लोगों का स्नेह प्राप्त करना तथा अपने अर्जित अनुभवों तथा ज्ञान को वितरित करके आप लोगों की सेवा करना ही मेरी उत्कट अभिलाषा है।
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बचपन और हमारा पर्यावरण
बचपन मनुष्य की वह अवस्था है जिसमें सीखने की सबसे अधिक ललक होती है क्योंकि एक बच्चे के लिए यह संसार एक अजूबा होता है तथा वह संसार को भली-भाँति जानने की चेष्टा करता है जिसके लिए नित नई-नई बातें सीखनी आवश्यक होती हैं। जितनी सीख बच्चे को अपने माता-पिता तथा गुरु से मिलती है उससे कहीं अधिक सीख उसे प्रकृति और पर्यावरण से मिलता है।
उषाकाल में आकाश की लालिमा, रक्तवर्ण सूर्य का उदय, लता-विटपों की हरीतिमा, सरिता का कलकल नाद के साथ प्रवाहित होना, गगनचुम्बी पर्वतमालाओं का सौन्दर्य जैसी प्राकृतिक दृश्य एवं प्राकृतिक क्रिया-कलाप मनुष्य के बचपन को जो ज्ञान प्रदान करती हैं वह जीवन भर के लिए उसके अचेतन मस्तिष्क की सम्पदा बनकर रह जाती हैं। मनुष्य के अचेतन मस्तिष्क में संचित पर्यावरण के द्वारा प्रदत्त यही ज्ञान मनुष्य के भीतर जीवनपर्यन्त भावनाएँ तथा संवेदनाएँ उत्पन्न करके उसे महान कलाकार, महान कवि, महान विचारक बनाता है।
पर्यावरण प्रदत्त इस ज्ञान से तो श्री राम जैसे ईश्वर के अवतार भी अछूते नहीं रह पाए हैं। बाल्यकाल में अयोध्या की भूमि, सर, सरोवर, नद्, पर्वत आदि से प्राप्त भावनाएँ और संवेदनाएँ ही वनवास के समय राम के मुँह से बरबस कहलवा देती हैं -
"हे जननी! तुम सदैव मेरे लिये प्रेरणामयी रही हो। तुम्हारी धूलि मुझे चन्दन की भाँति शान्ति देती है, तुम्हारा जल मेरे लिये अमृतमयी और जीवनदायी है।"
प्रकृति और पर्यावरण ही मनुष्य के सच्चे मित्र हैं, इसीलिए राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त जी अपने खण्डकाव्य "पंचवटी" में कहते हैं -
"सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,
अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!
अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,
पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥"
हमारा पर्यावरण सबसे अधिक प्रभावित हमारे बच्चों को ही करता है। बालकों की बाल-सुलभ जिज्ञासा और सीखने की ललक उन्हें पर्यावरण और प्रकृति के प्रति आकर्षित करती हैं। उषा की लालिमा, लता-विटपों-वृक्षों की हरीतिमा, सरिता का कलकल नाद, धरा से अम्बर का मिलन कराने की चेष्टा करने वाली पर्वतश्रेणियाँ बालकों के बालपन को जहाँ आह्लादित करती हैं वहीं उनके हृदय में भावनाओं तथा संवेदनाओं को जन्म देती हैं।
जरा अपने बचपन के दिनों को याद कीजिए! क्या आपको ऐसा अनुभव नहीं होता था कि आकाश को ऊँचे-ऊँचे वृक्ष, आम के बौर, पेड़ों की डालों में लगे स्वादिष्ट फल मनमोहक रंगों वाले फूल, पौधों के कोमल प्यारे पत्ते, झर-झर बहता पानी, सन-सन बहती हवा, सांझ की बेला में कलरव करते रंग-बिरंगे पंछी, हरे-भरे खेत, आदि, जो हमारे पर्यावरण के अंग हैं, हमारे ही जीवन के हिस्से हैं? इन सबके बगैर क्या आपका जीवन नीरस न हो जाता? क्या पर्यावरण के ये अंग आपके जीवन को ऊर्जा से भर नहीं देते थे?
आज धरा के गर्भ से विभिन्न खनिजों को प्राप्त करने के लिए और भूमि तथा पवर्तों को खोद डाला गया है और यह उत्खनन कार्य द्रुत गति से हुआ ही जा रहा है, वनों के वृक्षों को काट डाला गया है और बड़ी तेजी के साथ अभी भी काटा जा रहा है, सरिता के स्वच्छ जल में कारखानों की गंदगी को मिला डाला गया है और दिन-ब-दिन गंदगी बढ़ती ही जा रही है। क्या हमारे इन कार्यों से क्या प्रकृति का क्षरण और पर्यावरण का विनाश नहीं हो रहा है? हम इतने स्वार्थी हो गए हैं कि प्रकृति से सिर्फ प्राप्ति ही चाहते हैं और जिस प्रकृति से हमें प्राप्ति हो रही है उसकी प्रकृति के सन्तुलन के विषय में कुछ भी नहीं सोचते।
अधिक पुरानी बात नहीं है, महज चार सौ साल पहले याने कि सत्रहवीं शताब्दी तक हमारा देश विश्व का सर्वाधिक समृद्ध व धनाड्य देश था, देश में दूध-दही की नदियाँ बहती थीं और हमारा देश विश्व भर में "सोने की चिड़िया" के नाम से जाना जाता था। ऐसा सिर्फ इसीलिए था क्योंकि हमारे देश का पर्यावरण देश को प्रचुर मात्रा में शुद्ध जल, शुद्ध वायु, हरे-भरे वन आदि प्राकृतिक सम्पदा प्रदान करने में पूर्णतः समर्थ था।
आज हममें से अधिकतर लोगों की सन्तानों को प्रकृति के सौन्दर्य का दर्शन दुर्लभ हो गया है क्योंकि हमने अपने चारों ओर सीमेंट और कंक्रीट का जंगल बना डाला है। उषा की लालिमा जितना मन को मोहती है क्या विद्युत का कृत्रिम प्रकाश उतना ही मन को मोह सकता है? पर्वत के शिखर से प्राकृतिक रूप से झरता हुआ झरना हृदय को जितनी प्रसन्नता प्रदान करता है क्या सड़क के किनारे बनाया गया कृत्रिम रूप से बनाया गया तथा कृत्रिम प्रकाश से सजाया गया झरना हृदय को उतनी ही प्रसन्नता प्रदान कर सकता है? वनों में स्वच्छंद विचरण करने वाले वन्य पशुओं को देखकर जो आनन्द मिलता है, चिड़ियाघर में बन्द पशुओं को देखकर क्या वही आनन्द मिल सकता है?
पर्यावरण सदैव से मानव तथा उसके जीवन को प्रभावित करता रहा था, करता रहा है और करता रहेगा। हमारे पर्यावरण का अस्तित्व प्रकृति के कारण ही सम्भव है किन्तु दुःख की बात है कि आधुनिकता की दौड़ में अन्धे होकर हम प्रकृति को ही नष्ट किए जा रहे हैं। प्रकृति नष्ट होगी तो पर्यावरण भी प्रदूषित होकर नष्ट हो जाएगी जिसका परिणाम मानव के नाश के रूप में ही दृष्टिगत होगा। मानव का पूर्ण नाश तो जब होगा तब होगा, किन्तु प्रकृति के नाश तथा पर्यावरण के प्रदूषण ने हमारे बच्चों के बचपन का नाश करना अभी से ही जारी कर दिया है। यदि हमें हमारे बच्चों के बचपन को बचाना है तो हमें हमारे पर्यावरण को बचाना ही होगा।
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प्रमाणपत्र
प्रमाणित किया जाता है कि उपरोक्त लेख मेरा मौलिक तथा स्वरचित लेख है।
जी.के अवधिया
नामः जी.के. अवधिया
जन्म तिथिः 20-07-1950
जन्म स्थानः रायपुर
शिक्षाः बी.एससी
अपने बारे मेंः मैं एक संवेदनशील, सादे विचार वाला, सरल, सेवानिवृत व्यक्ति हूँ। मुझे अपनी मातृभाषा हिंदी पर गर्व है। आप सभी लोगों का स्नेह प्राप्त करना तथा अपने अर्जित अनुभवों तथा ज्ञान को वितरित करके आप लोगों की सेवा करना ही मेरी उत्कट अभिलाषा है।
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बचपन और हमारा पर्यावरण
बचपन मनुष्य की वह अवस्था है जिसमें सीखने की सबसे अधिक ललक होती है क्योंकि एक बच्चे के लिए यह संसार एक अजूबा होता है तथा वह संसार को भली-भाँति जानने की चेष्टा करता है जिसके लिए नित नई-नई बातें सीखनी आवश्यक होती हैं। जितनी सीख बच्चे को अपने माता-पिता तथा गुरु से मिलती है उससे कहीं अधिक सीख उसे प्रकृति और पर्यावरण से मिलता है।
उषाकाल में आकाश की लालिमा, रक्तवर्ण सूर्य का उदय, लता-विटपों की हरीतिमा, सरिता का कलकल नाद के साथ प्रवाहित होना, गगनचुम्बी पर्वतमालाओं का सौन्दर्य जैसी प्राकृतिक दृश्य एवं प्राकृतिक क्रिया-कलाप मनुष्य के बचपन को जो ज्ञान प्रदान करती हैं वह जीवन भर के लिए उसके अचेतन मस्तिष्क की सम्पदा बनकर रह जाती हैं। मनुष्य के अचेतन मस्तिष्क में संचित पर्यावरण के द्वारा प्रदत्त यही ज्ञान मनुष्य के भीतर जीवनपर्यन्त भावनाएँ तथा संवेदनाएँ उत्पन्न करके उसे महान कलाकार, महान कवि, महान विचारक बनाता है।
पर्यावरण प्रदत्त इस ज्ञान से तो श्री राम जैसे ईश्वर के अवतार भी अछूते नहीं रह पाए हैं। बाल्यकाल में अयोध्या की भूमि, सर, सरोवर, नद्, पर्वत आदि से प्राप्त भावनाएँ और संवेदनाएँ ही वनवास के समय राम के मुँह से बरबस कहलवा देती हैं -
"हे जननी! तुम सदैव मेरे लिये प्रेरणामयी रही हो। तुम्हारी धूलि मुझे चन्दन की भाँति शान्ति देती है, तुम्हारा जल मेरे लिये अमृतमयी और जीवनदायी है।"
प्रकृति और पर्यावरण ही मनुष्य के सच्चे मित्र हैं, इसीलिए राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त जी अपने खण्डकाव्य "पंचवटी" में कहते हैं -
"सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,
अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!
अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,
पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥"
हमारा पर्यावरण सबसे अधिक प्रभावित हमारे बच्चों को ही करता है। बालकों की बाल-सुलभ जिज्ञासा और सीखने की ललक उन्हें पर्यावरण और प्रकृति के प्रति आकर्षित करती हैं। उषा की लालिमा, लता-विटपों-वृक्षों की हरीतिमा, सरिता का कलकल नाद, धरा से अम्बर का मिलन कराने की चेष्टा करने वाली पर्वतश्रेणियाँ बालकों के बालपन को जहाँ आह्लादित करती हैं वहीं उनके हृदय में भावनाओं तथा संवेदनाओं को जन्म देती हैं।
जरा अपने बचपन के दिनों को याद कीजिए! क्या आपको ऐसा अनुभव नहीं होता था कि आकाश को ऊँचे-ऊँचे वृक्ष, आम के बौर, पेड़ों की डालों में लगे स्वादिष्ट फल मनमोहक रंगों वाले फूल, पौधों के कोमल प्यारे पत्ते, झर-झर बहता पानी, सन-सन बहती हवा, सांझ की बेला में कलरव करते रंग-बिरंगे पंछी, हरे-भरे खेत, आदि, जो हमारे पर्यावरण के अंग हैं, हमारे ही जीवन के हिस्से हैं? इन सबके बगैर क्या आपका जीवन नीरस न हो जाता? क्या पर्यावरण के ये अंग आपके जीवन को ऊर्जा से भर नहीं देते थे?
आज धरा के गर्भ से विभिन्न खनिजों को प्राप्त करने के लिए और भूमि तथा पवर्तों को खोद डाला गया है और यह उत्खनन कार्य द्रुत गति से हुआ ही जा रहा है, वनों के वृक्षों को काट डाला गया है और बड़ी तेजी के साथ अभी भी काटा जा रहा है, सरिता के स्वच्छ जल में कारखानों की गंदगी को मिला डाला गया है और दिन-ब-दिन गंदगी बढ़ती ही जा रही है। क्या हमारे इन कार्यों से क्या प्रकृति का क्षरण और पर्यावरण का विनाश नहीं हो रहा है? हम इतने स्वार्थी हो गए हैं कि प्रकृति से सिर्फ प्राप्ति ही चाहते हैं और जिस प्रकृति से हमें प्राप्ति हो रही है उसकी प्रकृति के सन्तुलन के विषय में कुछ भी नहीं सोचते।
अधिक पुरानी बात नहीं है, महज चार सौ साल पहले याने कि सत्रहवीं शताब्दी तक हमारा देश विश्व का सर्वाधिक समृद्ध व धनाड्य देश था, देश में दूध-दही की नदियाँ बहती थीं और हमारा देश विश्व भर में "सोने की चिड़िया" के नाम से जाना जाता था। ऐसा सिर्फ इसीलिए था क्योंकि हमारे देश का पर्यावरण देश को प्रचुर मात्रा में शुद्ध जल, शुद्ध वायु, हरे-भरे वन आदि प्राकृतिक सम्पदा प्रदान करने में पूर्णतः समर्थ था।
आज हममें से अधिकतर लोगों की सन्तानों को प्रकृति के सौन्दर्य का दर्शन दुर्लभ हो गया है क्योंकि हमने अपने चारों ओर सीमेंट और कंक्रीट का जंगल बना डाला है। उषा की लालिमा जितना मन को मोहती है क्या विद्युत का कृत्रिम प्रकाश उतना ही मन को मोह सकता है? पर्वत के शिखर से प्राकृतिक रूप से झरता हुआ झरना हृदय को जितनी प्रसन्नता प्रदान करता है क्या सड़क के किनारे बनाया गया कृत्रिम रूप से बनाया गया तथा कृत्रिम प्रकाश से सजाया गया झरना हृदय को उतनी ही प्रसन्नता प्रदान कर सकता है? वनों में स्वच्छंद विचरण करने वाले वन्य पशुओं को देखकर जो आनन्द मिलता है, चिड़ियाघर में बन्द पशुओं को देखकर क्या वही आनन्द मिल सकता है?
पर्यावरण सदैव से मानव तथा उसके जीवन को प्रभावित करता रहा था, करता रहा है और करता रहेगा। हमारे पर्यावरण का अस्तित्व प्रकृति के कारण ही सम्भव है किन्तु दुःख की बात है कि आधुनिकता की दौड़ में अन्धे होकर हम प्रकृति को ही नष्ट किए जा रहे हैं। प्रकृति नष्ट होगी तो पर्यावरण भी प्रदूषित होकर नष्ट हो जाएगी जिसका परिणाम मानव के नाश के रूप में ही दृष्टिगत होगा। मानव का पूर्ण नाश तो जब होगा तब होगा, किन्तु प्रकृति के नाश तथा पर्यावरण के प्रदूषण ने हमारे बच्चों के बचपन का नाश करना अभी से ही जारी कर दिया है। यदि हमें हमारे बच्चों के बचपन को बचाना है तो हमें हमारे पर्यावरण को बचाना ही होगा।
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प्रमाणपत्र
प्रमाणित किया जाता है कि उपरोक्त लेख मेरा मौलिक तथा स्वरचित लेख है।
जी.के अवधिया
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आभार इस जानकारी के लिये।
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