पर्यावरण बचाना है--सबको पेड़ लगाना है!!---धरती हरी भरी रहे हमारी--अब तो समझो जिम्मेदारी!! जल ही जीवन-वायू प्राण--इनके बिना है जग निष्प्राण!!### शार्ट एड्रेस "www.paryavaran.tk" से इस साईट पर आ सकते हैं

बचपन और हमारा पर्यावरण --- आलोकिता

>> शनिवार, 23 अप्रैल 2011

परिचय-
आलोकिता 
पिता का नाम - श्री अवधेश प्रसाद गुप्ता 
माता का नाम - डॉ.अंजू कुमारी प्रसाद 
जन्म तिथि -२ दिसम्बर १९९१
निवास - पटना (बिहार )
 
बचपन और हमारा पर्यावरण 

बचपन.....शब्द में ही सुखद अहसास हैं एक स्वछंदता  और निखरेपन  का, इस संसार मैं आँखे खोलते ही सबसे पहले आंखे दो चार होती हैं मनुष्य की अपने  सृजक से और देखता हैं वह अपने आसपास के अनजाने वातावरण को  और साजों लेता चाहता हैं इस प्रकृति को अपने  आगोश मैं .
प्रायः हर व्यक्ति कि सबसे सुनहरी यादें उसकी बचपन से हीं जुड़ी होतीं हैं | दादा दादी ,नाना नानी के किस्से, मम्मी पापा की कहानियां लगभग सभी में बचपन और उसकी मस्तियों का ही बखान होता है |यादें तो हमारे पास भी हैं बचपन की पर एक बहुत बड़ा फर्क है , उनकी और हमारी यादों में | उनकी यादों में एक संतुष्टि है , एक तृप्ति है और हमारी यादों में एक अधूरापन है |ये अधूरापन है पर्यावरण का, प्रकृति की सुन्दरता का | उनकी यादों में खेतों की बातें हैं, पेड़ों की बातें हैं और हमारी यादों में मोटर गाड़ियों का शोर, उनसे निकलने वाले धुंए हैं | उनका बचपन एक आजाद बचपन था, खेतों में घुमने की आज़ादी , नदियों में तैरने की आज़ादी, पेड़ों पर चढ़ने की आज़ादी | हमारा बचपन था एक कैद बचपन, तेज़ रफ़्तार से चलने वाली गाड़ियों के डर से घर में कैद बचपन | किसी किसी छत पर सजावटी फूलों के गमलें तो हमने देखे हैं पर वो बरगद, पीपल के बड़े बड़े पेड़ तो हमारे लिए कहानियों तक ही सिमित हैं |जन्मस्थली मेरी सोन किनारे और अब तक का जीवन गुजरा है गंगा किनारे | दोनों हीं बड़ी नदियाँ हैं पर हमने देखा क्या है ? सोन में सिर्फ रेत और गंगा में कूड़े कचड़े | पापा कहते हैं पहले दोनों में बहुत पानी था |वे लोग छोटे थे तो लेख लिखते थे वृक्ष पर, तैराकी पर और हमने जब 
से लिखना सीखा है हम लिखते हैं प्रदुषण पर, वृक्ष कि कटाई पर |
कहने को तो सिर्फ पेड़ों की कटाई हुई है पर इन पेड़ों कि कटाई ने हमारे बचपन से कितने ही अहम् हिस्से काट दिए हैं | प्यारी प्यारी रंग बिरंगी तितलियों , चिड़ियों को तो हमने देखा है पर सिर्फ किताबों में | असल जिन्दगी में देखी है तो नन्ही गौरैया,काला कौवा, चिकेन सेंटर पर कटते हुए मुर्गे और पिंजड़े में बंद कुछ तोते | पेड़ हैं हीं नहीं तो विविध तरह के पक्षी रहेंगे कहाँ ?हम मनुष्य विकास के नाम पर प्रकृति से कटकर तो रह सकते हैं पर पशु पक्षी नहीं | और वास्तव में हम विकाश कि तरफ बढ़ रहे हैं या विनाश कि तरफ तय कर पाना मुश्किल है |किसी भी स्तर पर  यदि  चौमुखी विकाश हो तो हीं उसे विकास कहा जा सकता है, सिर्फ सकल घरेलु उत्पाद(GDP) के बढ़ते दर को विकास नहीं माना जा सकता |प्रकृति को नुकसान पंहुचा कर हम जितनी रफ़्तार से तरक्की कर रहे है क्या दुगनी रफ़्तार से  विनाश हमारी तरफ नहीं बढ़ रहा ? बुजुर्गों ने जिन पक्षियों, जिन किट-पतंगों को देखा है, जिन हालातों को उन्होंने जिया है, हमने उनको सिर्फ रटा है किताबों से | पर अब लोगों में धीरे धीरे आती जागरूकता देख कर एक आशा जगी है कि शायद स्थिति सुधर जाए | लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करने क लिए har वर्ष ५ जून को पर्यावरण दिवस मनाया जाता है | गैर सरकारी स्तर पर भी बहुत से अभियान चले हैं जो कि हम सभी जानते हैं १९७३ में मंडल, रामपुर, फाटा के बाद १९७४ में रेणी में भी बड़े स्तर पर चिपको आन्दोलन चला था |प्राकृतिक se सांठ गाँठ बनाये रखने के लिए कुछ आदिवासी समूहों में हर बच्चे के जन्म पर कुछ वृक्ष लगाये जाते थे | उसी तर्ज़ 'प्रत्येक व्यक्ति एक वृक्ष' का नारा आया पर अब एक वृक्ष से नहीं प्रत्यक व्यक्ति को अनेको वृक्ष लगाने होंगे और जंगलों कि कटाई भी रोकनी होगी |शोध बताते हैं कि वर्तमान स्थिति में एक हफ्ते में हमारी धरती से ५ लाख हेक्टर  में फैला जंगल साफ़ कर दिया जा रहा है | बच्चों में होने वाली बिमारियों में औसतन ५% 
बीमारियाँ दूषित पर्यावरण कि वजह से होतीं हैं, और पर्यावरण के वर्तमान स्थिति से अनुमान लगाया 
गया है कि यह प्रतिशत और अधिक बढ़ने कि आशंका है | यह आशंका सच्चाई में तब्दील न हो जाए इसके लिए हमे प्रयाश्रत  होना होगा | पर्यावरण को दूषित होने से बचाना होगा, उसे स्वक्ष रखना होगा 
स्वक्ष  रहेगा पर्यावरण, 
तो सुरक्षित होगा बचपन | 
सुना है हर बरसात के बाद पहले इन्द्रधनुष दिखाई देता था पर हमारे बचपन में सतरंगी इन्द्रधनुष कहाँ ?है तो बस किताबों में दादी नानी की कहानियों में, असल जिन्दगी में बस ऊँची ऊँची दीवारों पर 
चढ़े कृत्रिम रंग हीं हैं |टैगोर जी के जीवन कि एक घटना पढ़ी थी कि उन्हें सबकुछ धुंधला सा दीखता था पर जब उन्हें चश्मे मिले तो उनका कहना था कि अचानक उन्हें साफ़ दिखने लगा | तब उन्हें पता चला कि प्रकृति कितनी सुन्दर है और उस सुन्दरता पर वे मुग्ध हो गए | प्रदूषित जल वायु में रहते रहते आज तो ज्यादातर बच्चों को चश्मा लग चुका है पर फिर भी उनके नसीब में वे मनमोहक दृश्य 
कहाँ ?
बड़ों से सुना है उनके बचपन में वे कपडे के थैले का इस्तेमाल करते थे | हमने जब से होश संभाला है पौलिथिन का हीं इस्तेमाल किया है , और सिर्फ इस्तेमाल नहीं किया बल्कि तभी से ये सुनते आ रहे हैं कि यह पर्यावरण के लिए बहुत नुकसानदेह है | इसका इस्तेमाल बंद होना चाहिए और जाने कब तक ऐसा सुनते रहेंगे |मुझे लगता है ' प्लास्टिक का इस्तेमाल बंद करो' यह नारा हीं गलत है | इसका उत्पादन हीं क्यूँ नहीं बंद होता ? अरे भाई न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी | पौलिथिन का 
उत्पादन हीं नहीं होगा तो लोग इस्तेमाल कैसे करेंगे ?
अक्सर पुराणी पीढ़ी के लोग नयी पीढ़ियों पर प्रकृति से दूर होने का, सुविधाओं के नाम  पर  संकीर्णताओं में जकड़े होने का इल्जाम लागतें हैं | पर क्या कभी ये सोचा है, जिसने प्रकृति का मनोरम दृश्य देखा हीं नहीं वह भला प्रकृति प्रेमी कैसे बन सकता है ? जिसने पर्यावरण का सही रूप देखा ही नहीं वह भला पर्यावरण के बारे में कैसे सोच सकता है ?इस पर्यावरण ने हमारे बुजुर्गों के बचपन की यादों में तो चार चाँद लगा कर और सुनहरा बना दिया, इसमें बढ़ते प्रदुषण ने हमारे बचपन में एक अधूरापन ला दिया है |पर अब जब हम सारी स्थितियों से वाकिफ हैं तो तो मिलकर एक सम्मिलित प्रयास तो कर हीं सकते हैं ताकि आने वाली पीढ़ियों के बचपन में वह अधूरापन न आये | वे भी प्रकृति को समझ पाए, उसकी नजदीकियों का लुत्फ़ उठा पाए, हमें ही समग्र  प्रयास  करना होगा और जल्दी ही |

अपने  पुरखो  कि  विरासत  को  संभालो  वरना
अबके बारिश  में  ये  दीवार  भी ढह  जाएगी

4 टिप्पणियाँ:

Darshan Lal Baweja 23 अप्रैल 2011 को 5:57 pm बजे  

आभार इस जानकारी के लिये।

हरीश भट्ट 25 अप्रैल 2011 को 5:19 pm बजे  

क्या बात हैं अलोकिता जी
बहुत खूब
बहुत सार्थक जानकारी और उद्बोधन
बधाई
लिखती रहें

हरीश सिंह 28 मई 2011 को 7:01 pm बजे  

अलोकिता जी
बहुत खूब
बहुत सार्थक जानकारी

एक टिप्पणी भेजें

हमारा पर्यावरण पर आपका स्वागत है।
आपकी सार्थक टिप्पणियाँ हमारा उत्साह बढाती हैं।

  © Blogger template Webnolia by Ourblogtemplates.com 2009

Back to TOP