बचपन और पर्यावरण.---कविता वर्मा
>> शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011
परिचय-कविता वर्मा,
पढ़ने की अभिरुचि ब्लॉगजगत तक खींच लाई,इसके विराट स्वरुप ने लेखन की चाह को विस्तार दिया,और जिस उन्मुक्त ह्रदय से इसने मुझे अपनाया ,सराहा ,में अभिभूत हुई.नाम है कविता वर्मा ,मन की बाते विचार उलझने जो किसी से न कह पाई वही शब्दों के रूप में निकल कर "कासे कहूँ "में समां गयी ....ब्लॉग ने कुछ न कह पाने की पीड़ा को बखूबी सहलाया ,और मन की कही अनकही बाते यहाँ उंडेल कर में भारहीन हो कर उन्मुक्त आकाश में उड़ चली...
क्या खेले ?क्या खेले?सोचते सोचते आखिर ये तय हुआ नदी पहाड़ ही खेलते है।
तेरी नदी में कपडे धोउं,
तेरी नदी में रोटी पकाऊ,
चिल्लाते हुए बच्चे निचली जगह को नदी और ऊँचे ओटलो को पहाड़ समझ कर खेल रहे है ,नदी का मालिक अपनी नदी के लिए इतना सजग है की उसमे कपडे धोने ,बर्तन धोने से उसे तकलीफ होती है।
गर्मियों की चांदनी रात ,लाइट नहीं है अब अँधेरे में क्या करे? एक जगह बैठे तो मच्छर काटते है ,नानी कहती है ,
अरे ! जाओ धुप छाँव खेलो ,कितनी अच्छी चांदनी रात है,और बच्चे मेरी धूप और मेरी छाँव के मालिक बन जाते है।
इत्ता इत्ता पानी गोल गोल रानी हो या अमराई में पत्थर पर गिरी केरीयों की चटनी पीसना ,खेलते हुए किसी कुए, की जगत पर बैठना, प्यास लगे और पानी न हो तो किस पेड़ की पत्तियां चबा लेना ,या रंभाती गाय भैस से बाते करना,इस साल किस आम पर मोर आएगा किस पर नहीं ,गर्मी में नदी सूखेगी या नहीं, टिटहरी जमीन पर अंडे देगी या नहीं ?हमारा बचपन तो ऐसी ही जाने कितनी बातों से भरा पड़ा था। खेल खेल में बच्चे अपने परिवेश से कितने जुड़ जाते थे?कितनी ही बाते खुद -ब -खुद सीख जाते थे ,पता ही नहीं चलता था। हमारे खेल हमारे जीवन से परिवेश से पर्यावरण से इस तरह जुड़े थे की उन्हें कही अलग देखा ही नहीं जा सकता था।
समय बदला नदियाँ सूख गयी, पहाड़ कट कर सड़के या खदाने बन गयी,सड़क की लाइट ने चाँद तारों की रोशनी छीन ली,अब न पेड़ों से मोह रहा न उनकी चिंता, पानी के लिए ट्यूब वेल आ गए या मीलों दूर से पाइप लाइन ।
हमारा प्लेनेट खतरे में है ,अन्तरिक्ष से आयी आफत हम पर टूट पड़ी ,
पोपकोर्न खाते हाथ मुह तक आने से पहले ही रुक गए ,अब आयेंगे हमारे सुपर हीरो .........
ये लो आ गए पृथ्वी,अग्नि, वायु, जल ,आकाश और ये बनी सुपर पॉवर मिस्टर प्लेनेट ,और दुश्मन का हो गया खात्मा ,हमारी पृथ्वी बच गयी ।
एक गहरी सांस लेकर पोपकोर्न खाना फिर शुरू हो गया ,बिस्तेर पर पैर और फ़ैल गए । लीजिये अब चाहे अन्तरिक्ष से कोई आफत आये या ओजोन लयेर में छेद हो ,चाहे कही आग लगे या बाढ़ आ जाये हमारा सुपर हीरो सब ठीक कर देगा ,हम खाते रहेंगे आराम से अपने घर में बिस्तर पर । न्यूज़ पेपर वाले शोर मचाएंगे,टीचेर कोई प्रोजेक्ट देगी ग्लोबल वार्मिंग पर हम नेट से जानकारी जुटा कर ढेर सारे कागजों को इस्तेमाल करके बढ़िया सा प्रोजेक्ट बनायेंगे और १० में से १० नंबर पायेंगे । अब जिस पर्यावरण को कभी महसूस ही नहीं किया जिस की गोद में खेले ही नहीं उसके लिए संवेदनाये लाये कहाँ से ?
बच्चे पर्यावरण से बस इसी तरह से जुड़े है अब इसमें उनका क्या दोष है ?
जो पर्यावरण हमारे बुजुर्गों ने हमारे लिए सदियों से सहेज कर रखा था ,उसे हमने अपने स्वार्थ के लिए किस तरह तहस नहस कर दिया है,और इसी के साथ छेन लिया है पर्यावरण सा मासूम बचपन .....
पर्यावरण सहेजे ,ताकि बचपन का भोलापण कायम रह पाए...
4 टिप्पणियाँ:
बहुत अच्छी प्रस्तुति ...कविता जी से मिलवाने के लिए आभार
आभार इस जानकारी के लिये।
बहुत अच्छी कविता लिखी मेम...
ise itane dino bad khud padhna bahut hi sukhad laga..abhar.
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