बचपन और पर्यावरण. सुधीर सक्सेना "सुधि"
>> शनिवार, 2 अप्रैल 2011
संक्षिप्त परिचय, फोटो
नाम-सुधीर सक्सेना "सुधि' जनम तिथि: 11 जुलाई, 1959 जन्म स्थान:अजमेर [राजस्थान] शिक्षा: स्नातकसुधीर सक्सेना 'सुधि' की साहित्य लेखन में रुचि बचपन से ही रही। बारह वर्ष की आयु से ही इनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं में अनेक रचनाएँ प्रकाशित। आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी प्रसारण। बाल साहित्य में भी खूब लिखा। पत्रकारिता व लेखन के क्षेत्र में राजस्थान साहित्य अकादमी, राजस्थान पाठक मंच, भारतीय बाल कल्याण संस्थान, कानपुर, बाल गंगा (बाल साहित्यकारों की राष्ट्रीय संस्था, जयपुर) चिल्ड्रेन बुक ट्रस्ट के अलावा अन्य अनेक पुरस्कारों से सम्मानित 'सुधि' की अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अंतर्जाल की विभिन्न पत्रिकाओं में भी प्रकाशन। इसी क्रम में हिन्द-युग्म के माह अगस्त-2009 के यूनिकवि के लिए चयन। नुक्कड़ ब्लॉग पर नवम्बर-2009 में नुक्कड़ सर्वोत्तम बाल कविता सम्मान।
संप्रति: राजस्थान पत्रिका [संपादकीय, प्रकाशन विभाग] में कार्यरत I
संपर्क: 75 / 44 , क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर- 302020
मोबाईल: 09413418701
बचपनऔर पर्यावरणप्रिय बच्चो,आप पुराने नहीं, वर्तमान युग के बच्चे हो। कभी अपने पिता, दादाजी से पूछना। वे आपको बताएंगे तब और अब में अंतर। क्या था, क्या नहीं का अंतर। क्या है, क्या नहीं का अंतर। तब से गंगा का पानी बहुत बह चुका। बहुत कुछ बदल गया। जीवन के हर क्षेत्र में परिवर्तन आया है। लेकिन कुछ परिवर्तन ऐसे भी हैं, जिनसे हमें लाभ की बजाय हानि ही अधिक हो रही है। जैसे पर्यावरण की हानि।
यह एक ऐसी हानि है, जिसमें कोई भी बुद्धिमानी या भौतिक-दंभ नहीं चलता। इसमें हम सभी को शामिल होना पड़ेगा। ऐसे नहीं कि हम तो छोटे-से शहर में रहते हैं, बड़े शहर के बच्चे करें। हमें क्या मतलब? बात दरअसल अब किसी एक जगह विशेष की नहीं रही। यह समस्या समूचे देश की भी नहीं बल्कि समूचे विश्व की है। इसलिए देश-विदेश के हर बच्चे का यह दायित्व है कि वह इसे हर हाल में बचाए। अपने से बड़ों को भी प्रेरित करे। आपको पता है न कि हमारे देश की सोच शुरू से ही वसुधैव·कुटुम्बकम वाली रही है। विश्वहित के लिए हमारी जो सनातन प्रार्थना है, उसमें भी एक भाव यह है कि सभी लोग सुखी हों। मेघ समय पर वर्षा करें। भूमि सदा हरी-भरी रहे। आपको पता है, पर्यावरण का अर्थ? इसका अर्थ है-आस-पड़ोस, चारों ओर की स्थिति। हमने इसे प्रकृति से जोड़ लिया है और अब जब भी पर्यावरण की बात होती है, अपने आस-पास के वातावरण को साफ-सुथरा, और प्रदूषण रहित रखने की होती है। ये सभी बातें हमें अपनी धरती माँ को सुरक्षित और स्वच्छ रखने की भी प्रेरणा देती हैं। आज समूचे विश्व में पर्यावरण की सुरक्षा की बातें हो रही हैं। असंतुलित पर्यावरण की गंभीर समस्या सबके सामने है। ऐसी आशंका है ·कि यदि समय रहते प्रभावी ·दम नहीं उठाए गए तो आने वाले वर्षों में मनुष्य के सामने जीवन का संकट पैदा हो जाएगा। मानव-विकास के लिए स्वच्छ व संतुलित पर्यावरण की आवश्यकता है, यह वाक्य बोलने में जितना सरल है, व्यवहार में उतना ही जटिल।
भौतिक सुख-सुविधाओं की चाहत, उपयोगिता ने दूरदर्शिताहीन नजरिया अपनाया और प्रकृति की दुर्दशा करके रख दी। अब भुगतेगा कौन ? हम और आप ही तो भुगतेंगे। इसलिए प्रकृति की वर्तमान दुर्दशा की आज यही मांग है कि पर्यावरण की सुरक्षा, उसका संतुलन बनाए रखा जाए। पर्यावरण का निर्माण किसी एक अकेले के बस की बात नहीं। पेड़-पौधे, जल-वायु, जीव-जंतु सभी मिलकर पर्यावरण की रचना करते हैं। ये एक -दूसरे के सहयोगी हैं, पूरक हैं। एक के भी असंतुलित हो जाने से सारा पर्यावरण तंत्र बिगड़ सकता है। कितने खेद की बात है कि मनुष्य ने अपने स्वार्थ, अपनी सुविधा के नाम पर सहजता से ही इसे बिगाड़ दिया। अब पता चल रहा है पर्यावरण-असंतुलन के क्या दुष्परिणाम होते हैं। अब हालत यह हो रही है मनुष्य के साथ-साथ अन्य वन्य-जीवों को भी संकट का सामना करना पड़ रहा है। जबकि पशु-पक्षियों का इसे बिगाडऩे में कभी कोई योगदान नहीं रहा। प्रकृति कभी भी किसी का यूं ही निर्माण नहीं ·करती । उसकी सृष्टि में व्यर्थ कुछ भी नहीं होता। लेकिन पर्यावरण-असंतुलन ने अनेक प्रकार के वन्य जीव, तितलियां, पेड़-पौधों को विलुप्ति के कगार पर ला खड़ा किया और कई तो विलुप्त ही हो गए। पर्यावरण-संतुलन बनाए रखने में मनुष्य को ही आगे आना होगा। प्रकृति, वन्य-जीव, पेड़-पौधे आदि जो मनुष्य के हाथों लुटते-पिटते आए हैं, और जो बचे हुए हैं, वे भी विनम्र भाव से तैयार हैं, मनुष्य का साथ देने को, पर्यावरण की रक्षा करने को। बस, मनुष्य को समझ आ जाए और विश्व कवि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की लिखी पंक्तियां याद आ जाएं-देश की माटी, देश का जल, हवा देश की , देश के फल, सरस बनें, प्रभु सरस बने..... तो पर्यावरण पुन: संतुलित हो सकता है। बिगड़ी बात बन सकती है। किसी कड़वे फल की तरह कड़वी बात यह है क अशुद्ध पर्यावरण से मनुष्य का विनाश तय है। और यह क्रम शुरू हो चुका है। अस्पतालों में तेजी से बढ़ती लोगों की बेशुमार भीड़ इस बात की गवाह है कि हमारा पर्यावरण किस कदर खराब हो चुका है। जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण का सामना हम प्रतिदिन न चाहते हुए भी कर रहे हैं, करना ही पड़ रहा है। रासायनि· खाद, कीटनाशक दवाओं का प्रयोग तो अब आम बात हो गई है। सब्जियों के माध्यम से यह विष हम सभी के पेट में जा रहा है। इससे हृदय, लीवर व गुरदे संबंधी बीमारियां तेजी से पनप रही हैं। इससे अधिक और किस प्रमाण की बात की जाए? मनुष्य एवं जीव-जंतुओं के लिए प्रकृति उपयोगी और प्राणदायिनी है। लेकिन जनसंख्या में वृद्धि तेजी से हो रही है और हमारा देश तो इसमें आगे बढ़ता ही जा रहा है।
सोचिए, ठंडे दिमाग से-यदि यही स्थिति रही तो बदहाल, बदहवास हालात आते भला कितनी देर लगेगी?हमारी जल्दी से जल्दी आधुनिक हो जाने की होड़ व झूठी शान से हम अस्थाई रूप से भले ही खुश हो जाएं, सफल भी हो जाएं, लेकिन स्थाई विकास तो संदेह के घेरे में ही है। साफ जाहिर है, हमारी जल्दबाजी, उतावलेपन की प्रवृत्ति ने ही प्रकृति के पर्यावरण-संतुलन को बिगाड़ा है। यदि आगे भी यही प्रवृत्ति बनी रही तो प्रकृति में करोड़ों वर्षों के बाद बना प्राकृतिक पर्यावरण जल्दी ही नष्ट हो जाएगा। हमें आभार मानना चाहिए प्रकृति का, जिसके शुद्ध वातावरण ने सदियों से आज तक सारी सृष्टि को अपनी स्नेह-छांव में रखा है। आज भी हमारा जीवन, जो जैसे-तैसे चल रहा है, पर्यावरण की ही देन है। लेकिन भविष्य? इसलिए पर्यावरण को नुकसान पहुंचाकर कर हम अपना ही नुकसान कर रहे हैं। यानी अपने पैरों पर खुद ही ·कुल्हाड़ी मार रहे हैं। यह समझदारी का लक्षण कतई नहीं है। अत: समय रहते हम चेत सकें तो ही अच्छा है। अन्यथा जब सांस लेने के लिए हमारे फेफड़ों को शुद्ध हवा भी न मिल पाएगी तो कैसे चलेगा यह जीवन? और कैसा होगा वह जीवन? इसकी तनिक कल्पना करें तो भयावह स्थिति आंखों के सामने दिखाई देगी। अत: अब समय आ गया है कि जब हम सब को एकत्रित होकर हमारे पर्यावरण को सुरक्षित तथा उनका विकास करने की कोशिश करनी चाहिए। हमें उन तमाम उपायों पर गंभीरता से विचार-विमर्श करना और उसे अमल में लाना चाहिए, जैसे कि - हम जंगलों को नष्ट न होने दें। धरती में उपलब्ध पानी का उपयोग तब ही करें जब हमें आवश्यकता हो। धरती के पानी को फिर से स्तर पर लाने के लिए वर्षा के पानी को सहेजने की व्यवस्था करें। कार्बन जैसी गैसों का उत्पादन बंद करें। ध्वनि प्रदूषण को सीमित करें।
इन बातों को ध्यान में रख कर हम अपने पर्यावरण को सुरक्षित रख सकते है। इस स्थिति में हम अपनी हरे भरे पृथ्वी को सुरक्षित रख सकते हैं। और हां, एक छोटी-सी; किन्तु महत्त्वपूर्ण बात-अपने जन्म दिन पर, अपने परिजनों, मित्रों के जन्मदिन पर, विवाह दिवस पर अथवा अन्य मांगलिक अवसरों पर स्मृति के रूप में वृक्ष लगाने की स्वस्थ परंपरा भी आरंभ कर देनी चाहिए।
-सुधीर सक्सेना ‘सुधि’
75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020
सम्पर्क- 094134-18701
नाम-सुधीर सक्सेना "सुधि' जनम तिथि: 11 जुलाई, 1959 जन्म स्थान:अजमेर [राजस्थान] शिक्षा: स्नातकसुधीर सक्सेना 'सुधि' की साहित्य लेखन में रुचि बचपन से ही रही। बारह वर्ष की आयु से ही इनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं में अनेक रचनाएँ प्रकाशित। आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी प्रसारण। बाल साहित्य में भी खूब लिखा। पत्रकारिता व लेखन के क्षेत्र में राजस्थान साहित्य अकादमी, राजस्थान पाठक मंच, भारतीय बाल कल्याण संस्थान, कानपुर, बाल गंगा (बाल साहित्यकारों की राष्ट्रीय संस्था, जयपुर) चिल्ड्रेन बुक ट्रस्ट के अलावा अन्य अनेक पुरस्कारों से सम्मानित 'सुधि' की अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अंतर्जाल की विभिन्न पत्रिकाओं में भी प्रकाशन। इसी क्रम में हिन्द-युग्म के माह अगस्त-2009 के यूनिकवि के लिए चयन। नुक्कड़ ब्लॉग पर नवम्बर-2009 में नुक्कड़ सर्वोत्तम बाल कविता सम्मान।
संप्रति: राजस्थान पत्रिका [संपादकीय, प्रकाशन विभाग] में कार्यरत I
संपर्क: 75 / 44 , क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर- 302020
मोबाईल: 09413418701
बचपनऔर पर्यावरणप्रिय बच्चो,आप पुराने नहीं, वर्तमान युग के बच्चे हो। कभी अपने पिता, दादाजी से पूछना। वे आपको बताएंगे तब और अब में अंतर। क्या था, क्या नहीं का अंतर। क्या है, क्या नहीं का अंतर। तब से गंगा का पानी बहुत बह चुका। बहुत कुछ बदल गया। जीवन के हर क्षेत्र में परिवर्तन आया है। लेकिन कुछ परिवर्तन ऐसे भी हैं, जिनसे हमें लाभ की बजाय हानि ही अधिक हो रही है। जैसे पर्यावरण की हानि।
यह एक ऐसी हानि है, जिसमें कोई भी बुद्धिमानी या भौतिक-दंभ नहीं चलता। इसमें हम सभी को शामिल होना पड़ेगा। ऐसे नहीं कि हम तो छोटे-से शहर में रहते हैं, बड़े शहर के बच्चे करें। हमें क्या मतलब? बात दरअसल अब किसी एक जगह विशेष की नहीं रही। यह समस्या समूचे देश की भी नहीं बल्कि समूचे विश्व की है। इसलिए देश-विदेश के हर बच्चे का यह दायित्व है कि वह इसे हर हाल में बचाए। अपने से बड़ों को भी प्रेरित करे। आपको पता है न कि हमारे देश की सोच शुरू से ही वसुधैव·कुटुम्बकम वाली रही है। विश्वहित के लिए हमारी जो सनातन प्रार्थना है, उसमें भी एक भाव यह है कि सभी लोग सुखी हों। मेघ समय पर वर्षा करें। भूमि सदा हरी-भरी रहे। आपको पता है, पर्यावरण का अर्थ? इसका अर्थ है-आस-पड़ोस, चारों ओर की स्थिति। हमने इसे प्रकृति से जोड़ लिया है और अब जब भी पर्यावरण की बात होती है, अपने आस-पास के वातावरण को साफ-सुथरा, और प्रदूषण रहित रखने की होती है। ये सभी बातें हमें अपनी धरती माँ को सुरक्षित और स्वच्छ रखने की भी प्रेरणा देती हैं। आज समूचे विश्व में पर्यावरण की सुरक्षा की बातें हो रही हैं। असंतुलित पर्यावरण की गंभीर समस्या सबके सामने है। ऐसी आशंका है ·कि यदि समय रहते प्रभावी ·दम नहीं उठाए गए तो आने वाले वर्षों में मनुष्य के सामने जीवन का संकट पैदा हो जाएगा। मानव-विकास के लिए स्वच्छ व संतुलित पर्यावरण की आवश्यकता है, यह वाक्य बोलने में जितना सरल है, व्यवहार में उतना ही जटिल।
भौतिक सुख-सुविधाओं की चाहत, उपयोगिता ने दूरदर्शिताहीन नजरिया अपनाया और प्रकृति की दुर्दशा करके रख दी। अब भुगतेगा कौन ? हम और आप ही तो भुगतेंगे। इसलिए प्रकृति की वर्तमान दुर्दशा की आज यही मांग है कि पर्यावरण की सुरक्षा, उसका संतुलन बनाए रखा जाए। पर्यावरण का निर्माण किसी एक अकेले के बस की बात नहीं। पेड़-पौधे, जल-वायु, जीव-जंतु सभी मिलकर पर्यावरण की रचना करते हैं। ये एक -दूसरे के सहयोगी हैं, पूरक हैं। एक के भी असंतुलित हो जाने से सारा पर्यावरण तंत्र बिगड़ सकता है। कितने खेद की बात है कि मनुष्य ने अपने स्वार्थ, अपनी सुविधा के नाम पर सहजता से ही इसे बिगाड़ दिया। अब पता चल रहा है पर्यावरण-असंतुलन के क्या दुष्परिणाम होते हैं। अब हालत यह हो रही है मनुष्य के साथ-साथ अन्य वन्य-जीवों को भी संकट का सामना करना पड़ रहा है। जबकि पशु-पक्षियों का इसे बिगाडऩे में कभी कोई योगदान नहीं रहा। प्रकृति कभी भी किसी का यूं ही निर्माण नहीं ·करती । उसकी सृष्टि में व्यर्थ कुछ भी नहीं होता। लेकिन पर्यावरण-असंतुलन ने अनेक प्रकार के वन्य जीव, तितलियां, पेड़-पौधों को विलुप्ति के कगार पर ला खड़ा किया और कई तो विलुप्त ही हो गए। पर्यावरण-संतुलन बनाए रखने में मनुष्य को ही आगे आना होगा। प्रकृति, वन्य-जीव, पेड़-पौधे आदि जो मनुष्य के हाथों लुटते-पिटते आए हैं, और जो बचे हुए हैं, वे भी विनम्र भाव से तैयार हैं, मनुष्य का साथ देने को, पर्यावरण की रक्षा करने को। बस, मनुष्य को समझ आ जाए और विश्व कवि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की लिखी पंक्तियां याद आ जाएं-देश की माटी, देश का जल, हवा देश की , देश के फल, सरस बनें, प्रभु सरस बने..... तो पर्यावरण पुन: संतुलित हो सकता है। बिगड़ी बात बन सकती है। किसी कड़वे फल की तरह कड़वी बात यह है क अशुद्ध पर्यावरण से मनुष्य का विनाश तय है। और यह क्रम शुरू हो चुका है। अस्पतालों में तेजी से बढ़ती लोगों की बेशुमार भीड़ इस बात की गवाह है कि हमारा पर्यावरण किस कदर खराब हो चुका है। जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण का सामना हम प्रतिदिन न चाहते हुए भी कर रहे हैं, करना ही पड़ रहा है। रासायनि· खाद, कीटनाशक दवाओं का प्रयोग तो अब आम बात हो गई है। सब्जियों के माध्यम से यह विष हम सभी के पेट में जा रहा है। इससे हृदय, लीवर व गुरदे संबंधी बीमारियां तेजी से पनप रही हैं। इससे अधिक और किस प्रमाण की बात की जाए? मनुष्य एवं जीव-जंतुओं के लिए प्रकृति उपयोगी और प्राणदायिनी है। लेकिन जनसंख्या में वृद्धि तेजी से हो रही है और हमारा देश तो इसमें आगे बढ़ता ही जा रहा है।
सोचिए, ठंडे दिमाग से-यदि यही स्थिति रही तो बदहाल, बदहवास हालात आते भला कितनी देर लगेगी?हमारी जल्दी से जल्दी आधुनिक हो जाने की होड़ व झूठी शान से हम अस्थाई रूप से भले ही खुश हो जाएं, सफल भी हो जाएं, लेकिन स्थाई विकास तो संदेह के घेरे में ही है। साफ जाहिर है, हमारी जल्दबाजी, उतावलेपन की प्रवृत्ति ने ही प्रकृति के पर्यावरण-संतुलन को बिगाड़ा है। यदि आगे भी यही प्रवृत्ति बनी रही तो प्रकृति में करोड़ों वर्षों के बाद बना प्राकृतिक पर्यावरण जल्दी ही नष्ट हो जाएगा। हमें आभार मानना चाहिए प्रकृति का, जिसके शुद्ध वातावरण ने सदियों से आज तक सारी सृष्टि को अपनी स्नेह-छांव में रखा है। आज भी हमारा जीवन, जो जैसे-तैसे चल रहा है, पर्यावरण की ही देन है। लेकिन भविष्य? इसलिए पर्यावरण को नुकसान पहुंचाकर कर हम अपना ही नुकसान कर रहे हैं। यानी अपने पैरों पर खुद ही ·कुल्हाड़ी मार रहे हैं। यह समझदारी का लक्षण कतई नहीं है। अत: समय रहते हम चेत सकें तो ही अच्छा है। अन्यथा जब सांस लेने के लिए हमारे फेफड़ों को शुद्ध हवा भी न मिल पाएगी तो कैसे चलेगा यह जीवन? और कैसा होगा वह जीवन? इसकी तनिक कल्पना करें तो भयावह स्थिति आंखों के सामने दिखाई देगी। अत: अब समय आ गया है कि जब हम सब को एकत्रित होकर हमारे पर्यावरण को सुरक्षित तथा उनका विकास करने की कोशिश करनी चाहिए। हमें उन तमाम उपायों पर गंभीरता से विचार-विमर्श करना और उसे अमल में लाना चाहिए, जैसे कि - हम जंगलों को नष्ट न होने दें। धरती में उपलब्ध पानी का उपयोग तब ही करें जब हमें आवश्यकता हो। धरती के पानी को फिर से स्तर पर लाने के लिए वर्षा के पानी को सहेजने की व्यवस्था करें। कार्बन जैसी गैसों का उत्पादन बंद करें। ध्वनि प्रदूषण को सीमित करें।
इन बातों को ध्यान में रख कर हम अपने पर्यावरण को सुरक्षित रख सकते है। इस स्थिति में हम अपनी हरे भरे पृथ्वी को सुरक्षित रख सकते हैं। और हां, एक छोटी-सी; किन्तु महत्त्वपूर्ण बात-अपने जन्म दिन पर, अपने परिजनों, मित्रों के जन्मदिन पर, विवाह दिवस पर अथवा अन्य मांगलिक अवसरों पर स्मृति के रूप में वृक्ष लगाने की स्वस्थ परंपरा भी आरंभ कर देनी चाहिए।
-सुधीर सक्सेना ‘सुधि’
75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020
सम्पर्क- 094134-18701
4 टिप्पणियाँ:
आभार इस जानकारी के लिये।
सुधि कलम को भूलना नहीं चाहते हैं हम
इनकी कलम में है भरपूर विचारों का दम।
sir
aapka bachpan aur paryavaran wala lekh pada. ankhe kholne wale is lekh padne mein ek din ki deri ho gayi kyonki kal hi meri beti ka birthday tha aur mujhe ek vriksh lagana chahiye tha par abhi bhi der nahi hai kal apke is lekh ke samman men ek vriksh jaroor lagaunga.
vinod
bahut hi sundar prayawaran sambandhi janjagrtibhari prastuti..aabhar
aapko navvarsh kee spariwar haardik shubhkamnayen!!
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